( ऊपर देखकर क्रोध से ) अरे राक्षस! छोड़-छोड़ यह व्यर्थ का श्रम; देख---
जिमि नृप नंदहि मारि कै वृषलहि दीनों राज।
आइ नगर चाणक्य किय दुष्ट सर्प सों काज॥
तिमि सोऊ नृप चंद्र को चाहत करन बिगार।
निज लघु मति लॉघ्यौ चहत मो बल-बुद्धि-पहार॥
( आकाश की ओर देखकर ) अरे राक्षस! मेरा पीछा छोड़। क्योकि---
राज काज मंत्री चतुर करत बिना अभिमान।
जैसो तुव नृप नंद हो चद्र न तौन समान॥
तुम कछु नहिं चाणक्य जो साधौ कठिनहु काज।
तासों हम सो बैर करि नहिं सरिहै तुव राज॥
अथवा इसमें तो मुझे कुछ सोचना ही न चाहिए। क्योंकि---
मम भागुरायन आदि भृत्यन मलय राख्यौ घेरि के।
तिमि गए सिद्धारथक ऐहै तेउ काज निबेरि कै॥
अब लखहु करि छल कलह नृप सों भेद बुद्धि उपाइ कै।
पर्बत जनन सों हम बिगारत राक्षसहिं उलटाइ कै॥
कंचुकी---हा! सेवा बड़ी कठिन होती है।
नृप सों सचिव सों सब मुसाहेब-गनन सों डरते रहौ।
पुनि विटहु जे अति पास के तिनकौं कह्यौ करते रहौ॥