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मुद्राराक्षस

डरति सूर सो भीरु कहँ गिनति न कछु रति-हीन।
बारनारि अरु लच्छमी कहो कौन बस कीन?॥

यद्यपि गुरु ने कहा है कि तू झूठी कलह करके स्वतंत्र होकर अपना प्रबंध आप कर ले, पर यह तो बड़ा पाप सा है। अथवा गुरुजी के उपदेश पर चलने से हम लोग तो सदा ही स्वतंत्र हैं।

जब लौं बिगारै काज नहिं तब लौं न गुरु कछु तेहि कहै।
पै शिष्य जाइ कुराह तौ गुरु सीस अंकुस है रहै॥
तासो सदा गुरु-वाक्य-वश हम नित्य पर-आधीन हैं।
निर्लोभ गुरु से संत जन ही जगत में स्वाधीन हैं॥

( प्रकाश ) अजी वैहीनर! "सुगांगप्रासाद" का मार्ग दिखाओ।

कंचुकी---इधर आइए, महाराज, इधर।

( राजा आगे बढ़ता है )

कंचुकी---महाराज! सुगांगप्रासाद की यही सीढी है।

राजा---( ऊपर चढ़कर ) अहा! शरद ऋतु की शोभा से सब दिशाएँ कैसी सुंदर हो रही हैं!

सरद बिमल ऋतु सोहई निरमल नील अकास।
निसानाथ पूरन उदित सोलह कला प्रकास॥
चारु चमेली बन रही महमह महँकि सुबास।
नदी तीर फूले लखौ सेत सेत बहु कास॥