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मुद्राराक्षस

जिमि इन तृन सम प्रान तजि कियो मित्र को त्रान।
तिमि साहू निज मित्र अरु कुल रखिहै दै प्रान॥

( नेपथ्य में कलकल )

चाणक्य---शारंगरव!

शिष्य---( आकर ) आज्ञा गुरुजी!

चाणक्य---देख तो यह कैसी भीड़ है।

शिष्य---( बाहर जाकर फिर आश्चर्य से आकर ) महाराज! शकटदास को सूली पर से उतारकर सिद्धार्थक लेकर भाग गया।

चाणक्य--( आप ही आप ) वाह सिद्धार्थक। काम का आरंभ तो किया। ( प्रकाश ) हैं क्या ले गया? ( क्रोध से ) बेटा! दौड़कर भागुरायण से कहो कि उसको पकड़े।

शिष्य---( बाहर जाकर आता है, विषाद से ) गुरुजी! भागु- रायण तो पहिले ही से कहीं भाग गया है।

चाणक्य---( आप ही आप ) निज काज साधने के लिये जाय। ( क्रोध से प्रकाश ) भद्रभट, पुरुषदत्त, हिंगुराज, बलगुप्त, राजसेन, रोहिताक्ष और विजयवर्मा से कहो कि दुष्ट भागुरायण को पकड़ें।

शिष्य---जो आज्ञा। ( बाहर जाकर फिर आकर विषाद से ) महाराज! बड़े दुःख की बात है कि सब बेड़े का बेड़ा