पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/४२२

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३१४
भारतेंदु-नाटकावली

दूजे के हित प्रान दै, करै धर्म प्रतिपाल।
को ऐसो शिवि के बिना, दूजो है या काल॥

( प्रकाश ) क्या चंदनदास, तुमने यही निश्चय किया है?

चंदनदास०---हाँ! हाँ! मैंने यही निश्चय किया है।

चाणक्य---( क्रोध से ) दुरात्मा दुष्ट बनिया! देख राजकोप का कैसा फल पाता है।

चंदन---( बॉह फैलाकर ) मैं प्रस्तुत हूँ, आप जो चाहिए अभी दंड दीजिए।

चाणक्य---( क्रोध से ) शारंगरव! कालपाशिक, दंडपाशिक से मेरी आज्ञा कहो कि अभी इस दुष्ट बनिये को दंड दें। नहीं, ठहरो, दुर्गपाल विजयपाल से कहो कि इसके घर का सारा धन ले लें और इसको कुटुंब-समेत पकड़ कर बाँध रखें, तब तक मै चंद्रगुप्त से कहूँ, वह आप ही इसके सर्वस्व और प्राण के हरण की आज्ञा देगा।

शिष्य---जो आज्ञा महाराज। सेठजी इधर आइए।

चंदन०---लीजिए महाराज! यह मैं चला। ( उठकर चलता है, आप ही आप ) अहा! मैं धन्य हूँ कि मित्र के हेतु मेरे प्राण जाते हैं, अपने हेतु तो सभी मरते हैं।

( दोनों बाहर जाते हैं )

चाणक्य---( हर्ष से ) अब ले लिया है राक्षस को, क्योंकि