चाणक्य---रावलजी! बेखटके चले आइए, यहाँ आपको सुनने और समझने वाले मिलेंगे।
दूत---आया। ( आगे बढ़कर ) जय हो महाराज की।
चाणक्य---( देखकर आप ही आप ) कामों की भीड़ से यह नहीं निश्चय होता कि निपुणक को किस बात के जानने के लिये भेजा था। अरे जाना, इसे लोगों के जी का भेद लेने को भेजा था। ( प्रकाश ) आओ, आओ कहो, अच्छे हो? बैठो।
दूत---जो आज्ञा। ( भूमि में बैठता है )
चाणक्य---कहो, जिस काम को गए थे उसका क्या किया? चंद्रगुप्त को लोग चाहते हैं कि नहीं?
दूत---महाराज! आपने पहिले ही से ऐसा प्रबंध किया है कि कोई चंद्रगुप्त से बिराग न करे; इस हेतु सारी प्रजा महाराज चंद्रगुप्त में अनुरक्त है, पर राक्षस मंत्री के दृढ़ मित्र तीन ऐसे हैं जो चंद्रगुप्त की वृद्धि नहीं सह सकते।
चाणक्य---( क्रोध से ) अरे! कह, कौन अपना जीवन नहीं सह सकते, उनके नाम तू जानता है?
दूत---जो नाम न जानतातो आपके सामने क्योंकर निवेदन करता?
चाणक्य---मैं सुना चाहता हूँ कि उनके क्या नाम हैं?
दूत---महाराज सुनिए। पहिले तो शत्रु का पक्षपात करनेवाला क्षपणक है।