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मुद्राराक्षस

सूत्र०---प्यारी, मैंने भी नहीं लखा, देखो, अब फिर से वही पढता हूँ और अब जब वह फिर बोलैगा तो मैं उसकी बोली से पहिचान लूँगा कि कौन है।


परंतु इसमें कुछ सदेह नहीं कि यह ग्रह बहुत छोटा है क्योंकि प्राचीनों को इसका ज्ञान बहुत कठिनता से हुआ है, इसी लिये इसका नाम ही बुध, ज्ञ, इत्यादि हो गया। यह पृथ्वी से ६८९३७७ इतने योजन की दूरी पर मध्यम मान से रहता है और सदा सूर्य के अनुचर के समान सूर्य के पास ही रहता है, एक पाद अर्थात् तीन राशि भी सूर्य से आगे नहीं जाता। विल्सन ने केतु शब्द से मलयकेतु का ग्रहण किया है। इसमें भी एक प्रकार का अलकार अच्छा रहता है।

चमत्कृत-बुद्धिसंपन्न पंडित सुधाकरजी ने इस विषय में जो लिखा है वह विचित्र ही है। वह भी प्रकाश किया जाता है---

करत अधिक अँधियार वह, मिलि मिलि करि हरिचंद।
द्विजराजहु विकसित करता, धनि धनि यह हरिचंद॥

श्री बाबू साहब को हमारे अनेक आशीर्वाद,

महाशय!

चंद्रग्रहण का संभव भूछाया के कारण प्रति पूर्णिमा के अंत में होता है और उस समय में केतु और सूर्य साथ रहते हैं। परंतु केतु और सूर्य का योग यदि नियत संख्या के अर्थात् पाँच राशि सोलह अंश से लेकर छ राशि चौदह अंश के वा ग्यारह राशि सोलह अंश से लेकर बारह राशि चौदह अंश के भीतर होता है तब ग्रहण होता है और यदि योग नियत संख्या के बाहर पड़ जाता है तब ग्रहण नहीं होता। इसलिये सूर्य केतु के योग ही के कारण से प्रत्येक पूर्णिमा में ग्रहण नहीं होता। तब