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श्रीचंद्रावली

सो धन्य। तो मैं और स्वामिनी मैं भेद नहीं है, ताहू मैं तू रस की पोषक ठैरी। बस, अब हमारी दोउन की यही बिनती है कै तुम दोऊ गलबाहीं दै कै बिराजौ और हम जुगलजोड़ी को दर्शन करि आज नेत्र सफल करै।

( गलबाही देकर जुगल स्वरूप बैठते हैं )

दोनों--

नीके निरखि निहारि नैन भरि नैनन को फल आजु लहौरी।
जुगल रूप छबि अमित माधुरी रूप-सुधा-रस-सिंधु बहौरी॥
इनहीं सौं अभिलाख लाख करि इक इनहीं कों नितहि चहौरी।
जो नर-तनहि सफल करि चाहौ इनहीं के पद-कंज गहौरी॥
करम-ज्ञान-संसार-जाल तजि बरु बदनामी कोटि सहौ री।
इनहीं के रस-मत्त मगन नित इनहीं के ह्वै जगत रहौ री॥
इनके बल जग-जाल कोटि अघ तृन सम प्रेम प्रभाव उमहौ री।
इनहीं को सरबस करि जानौ यहै मनोरथ जिय उमहौ री॥
राधा-चंद्रावली-कृष्ण-व्रज-जमुना-गिरिवर मुखहिं कहौ री।
जनम-जनम यह कठिन प्रेमव्रत 'हरीचंद' इकरस निबहौ री।

भग०---प्यारी! और जो इच्छा होय सो कहौ। काहे सों के जो तुम्हें प्यारो है सोई हमैं हूँ प्यारो है।

चंद्रा०---नाथ! और कोई इच्छा नहीं, हमारी तो सब इच्छा की अवधि आपके दर्शन ही ताईं है तथापि भरत को यह वाक्य सफल होय---