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श्रीचंद्रावली

चंद्रा---हा! इन बादलो को देखकर तो और भी जी दुखी होता है।

देखि धन स्याम घनस्याम की सुरति करि
जिय मैं बिरह घटा घहरि-घहरि उठै।
त्यौंही इंद्रधनु-बगमाल देखि बनमाल
मोतीलर पी की जिय लहरि-लहरि उठै॥
'हरीचंद' मोर-पिक-धुनि सुनि बंसीनाद
बाँकी छबि बार बार छहरि-छहरि उठै।
देखि-देखि दामिनी की दुगुन दमक पीत-
पट-छोर मेरे हिय फहरि-फहरि उठै॥

हाय! जो बरसात संसार को सुखद है वह मुझे इतनी दुखदायिनी हो रही है।

माधवी---तौ न दुखदायिनी होयगी। चल उठि घर चलि।

काममं०---हाँ चलि।

[ सब जाती हैं

( जवनिका गिरती है )

वर्षा-वियोग-विपत्ति नामक तृतीय अंक

भा० ना०---१६