देखती हैं वा बगीचों, पहाड़ों और मैदानों में गलबाहीं डाले फिरती हैं। दोनो परस्पर पानी बचाते हैं और रंगीन कपड़े निचोड़ कर चौगुना रंग बढ़ाते हैं। झूलते हैं, झुलाते हैं, हँसते हैं, हँसाते हैं, भीगते हैं, भिगाते हैं, गाते हैं, गवाते हैं, और गले लगते हैं, लगाते हैं।
माधुरी---और तेरो न कोई पानी बचानेवाला, न तुझे कोई निचोड़नेवाला, फिर चौगुने की कौन कहे ड्योढ़ा सवाया तो तेरा रंग बदेहीगा नहीं।
कामिनी---चल लुच्चिन! जाके पायँ न भई बिवाई सो क्या जानै पीर पराई।
( बात करती-करती पेड़ की आड़ में चली जाती है )
माधवी---( चंद्रावली से ) सखी, श्यामला का दर्शन कर, देख कैसी सुहावनी मालूम पड़ती है। मुखचंद्र पर चूनरी चुई पड़ती है। लटें सगबगी होकर गले में लपट रही हैं। कपड़े अंग में लपट गए हैं। भींगने से मुख का पान और काजल सबकी एक विचित्र शोभा हो गई है।
चंद्रा०---क्यों न हो। हमारे प्यारे की प्यारी है। मैं पास होती तो दोनों हाथों से इसकी बलैया लेती और छाती से लगाती।
का० मं०---सखी, सचमुच आज तो इस कदंब के नीचे रंग