( उठाकर देखती है ) राम राम! न जाने किस दुखिया की लिखी है कि ऑसुओं से भींजकर ऐसी चिपट गई है कि पढ़ी ही नहीं जाती और खोलने में फटी जाती है। ( बड़ी कठिनाई से खोलकर पढ़ती है )
प्यारे!
क्या लिखू! तुम बड़े दुष्ट हो, चलो, भला सब अपनी वीरता हमी पर दिखानी थी। हाँ! भला मैंने तो लोक-वेद, अपना-बिराना सब छोड़कर तुम्हें पाया, तुमने हमें छोड़ के क्या पाया? और जो धर्म उपदेश करो धर्म से फल होता है, फल से धर्म नहीं होता। निर्लज्ज, लाज भी नहीं आती, मुँह ढको फिर भी बोलने बिना डूबे जाते हो। चलो वाह! अच्छी प्रीति निबाही। जो हो, तुम जानते ही हौ, हाय कभी न करूँगी योंही सही, अंत मरना है, मैंने अपनी ओर से खबर दे दी, अब मेरा दोष नहीं, बस।
केवल तुम्हारी"
( लंबी सॉस लेकर ) हा! बुरा रोग है, न करै कि किसी के सिर बैठे-बिठाए यह चक्र घहराय। इस चिट्ठी के देखने से कलेजा कॉपा जाता है। बुरा! तिसमें स्त्रियो की बड़ी बुरी दशा है, क्योकि कपोतब्रत बुरा होता है कि गला घोट डालो मुँह से बात न निकले। प्रेम भी इसी का नाम है। राम-समे उस मुँह से जीभ खींच ली जाय