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श्रीचंद्रावली

धोरन दीजिए धीर हिए कुलकानि को आजु बिगारन दीजिए।
मार दीजिए लाज सबै 'हरिचंद' कलंक पसारन दीजिए॥
चार चवाइन कों चहुँ ओर सों सोर मचाइ पुकारन दीजिए।
छॉडि सँकोचन चंद-मुखै भरि लोचन आजु निहारन दीजिए॥

क्योंकि---

ये दुखियों सदा रोयो करै बिधना इनको कबहूँ न दियो सुख।
झूठहीं चार चवाइन के डर देख्यौ कियो उनहीं को लिये रुख॥
छॉड़यौ सबै 'हरिचंद' तऊ न गयो जिय सों यह हाय महा दुख।
प्रान बचै केहि भॉतिन सो तरसै जब दूर सों देखिबे कों मुख॥

( रोती है )

बन०---( ऑसू अपने आँचल से पोछकर ) तौ ये यहाँ नाँय रहिबे की, सखी एक घड़ी धीरज धर जब हम चली जाँय तब जो चाहियो सो करियो।

चंद्रा०---अरी सखियो मोहि छमा करियो, अरी देखौ तो तुम मेरे पास आईं और हमने तुमारो कछू सिस्टाचार न कियो। ( नेत्रों में ऑसू भरकर हाथ जोड़कर ) सखी, माहि छमा करियो और जानियो कि जहाँ मेरी बहुत सखी हैं उनमैं एक ऐसी कुलच्छिनी हू है।

संध्या और वर्षा---नहीं नहीं सखी, तू तो मेरी प्रानन सों हू प्यारी है, सखी हम सच कहैं तेरी सी सॉची प्रेमिन एक हू न देखी, ऐसे तो सबी प्रेम करै पर तू सखी धन्य है।