पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/३१८

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२०७
श्रीचंद्रावली

"हरिचंद जू' होनी हुती सो भई,
इन बातन सो कछू हात नहीं।
अपनावते सोच बिचारि तबै,
जलपान कै पूछनी जात नहीं॥

प्राणनाथ!---( आँखो में ऑसू उमड़ उठे ) अरे नेत्रो! अपने किए का फल भोगो।

धाइकै आगे मिलीं पहिले तुम,
कौन सो पूछिकै सो मोहि भाखौ।
त्यौं सब लाज तजी छिन मैं,
केहिके कहे एतौ कियो अभिलाखौ॥
काज बिगारि सबै अपना
'हरिचंद जू' धीरज क्यों नहिं राखौ।
क्यौं अब रोइकै प्रान तजौ,
अपने किए को फल क्यों नहिं चाखौ॥

हा!

इन दुखियान को न सुख सपने हू मिल्यौ,
योही सदा व्याकुल बिकल अकुलायँगी।
प्यारे 'हरिचंद जू' की बीती जानि औध जौ पैं
जैहै प्रान तऊ ये तो साथ न समायँगी॥
देख्यौ एक बार हू न नैन भरि तोहि यातें
जौन-जौन लोक जैहैं तहीं पछितायँगी।