पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/३०४

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पहिला अंक

( जवनिका उठी )

स्थान–--श्रीवृंदावन, गिरिराज दूर से दिखाता है

( श्रीचंद्रावली और ललिता आती हैं )

ललिता---प्यारी, व्यर्थ इतना शोच क्यो करती है?

चंद्रा०---नहीं सखी! मुझे शोच किस बात का है।

ललिता---ठीक है, ऐसी ही तो हम मूर्ख हैं कि इतना भी नहीं समझतीं।

चंद्रा०---नहीं सखी! मैं सच कहती हूँ, मुझे कोई शोच नहीं।

ललिता---बलिहारी सखी! एक तू ही तो चतुर है, हम सब तो निरी मूर्ख हैं।

चंद्रा०---नहीं सखी! जो कुछ शोच होता तो मैं तुझसे कहती न। तुझसे ऐसी कौन बात है जो छिपाती?

ललिता---इतनी ही तो कसर है, जो तू मुझे अपनी प्यारी सखी समझती तो क्यों छिपाती?

चंद्रा०---चल मुझे दुख न दे, भला मेरी प्यारी सखी तू न होगी तो और कौन होगी?

ललिता---पर यह बात मुख से कहती है, चित्त से नहीं।

चंद्रा०---क्यों?

भा० ना०---१३