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भारतेंदु-नाटकावली

ओर से ऐसी लपटी हैं, मानो इसको शिव की प्यारी जानकर गोद में लेकर आलिंगन कर रही हैं, और अपने पवित्र जलकण के स्पर्श से तापत्रय दूर करती हुई मनुष्यमात्र को पवित्र करती हैं। उसी गंगा के तट पर पुण्यात्माओं के बनाए बड़े-बड़े घाटों के ऊपर दोमंजिले, चौमंजिले, पँचमंजिले और सतमंजिले ऊँचे-ऊँचे घर आकाश से बातें कर रहे हैं, मानो हिमालय के श्वेत श्रृंग सब गंगा-सेवन करने को एकत्र हुए हैं। उसमें भी माधोराय के दोनों धरहरे तो ऐसे दूर से दिखाई देते हैं मानो बाहर के पथिकों को काशी अपने दोनों हाथ ऊँचे कर के बुलाती है। सॉझ-सबेरे घाटो पर असंख्य स्त्री-पुरुष नहाते हुए, ब्राह्मण लोग संध्या वा शास्त्रार्थ करते हुए, ऐसे दिखलाई देते हैं मानो कुबेरपुरी की अलकनंदा में किन्नरगण और ऋषिगण अवगाहन करते हैं; और नगाड़ा-नफीरी, शंख-घंटा, झांझ-स्तव और जय का तुमुल शब्द ऐसा गूंजता है मानो पहाड़ों की तराई में मयूरों की प्रतिध्वनि हो रही है; उसमें भी जब कभी दूर से साँझ को वा बड़े सबेरे नौबत की सुहानी धुन कान में आती है तो कुछ ऐसी भली मालूम पड़ती है कि एक प्रकार की झपकी सी आने लगती है। और घाटों पर सबेरे धूप की झलक ओर सॉझ को जल में घाटो की परछाही की शोभा भी देखते ही बन आती है।