पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/२४८

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१३३
प्रेमजोगिनी

दुःखरूप आप ही है, इसमें सुख का तो केवल आभासमात्र है।

सूत्र०---आभास-मात्र है---तो फिर किसने यह बखेड़ा बनाने और पचड़ा फैलाने को कहा था? उस पर भी न्याय करने और कृपालु बनने का दावा! ( आँख भर आती है )

पारि०---आज क्या है? किस बात पर इतना क्रोध किया है? भला यहाँ ईश्वर का निर्णय करने आए हो कि नाटक खेलने आए हो?

सूत्र०---क्या नाटक खेलें, क्या न खेलें, लो इसी खेल ही में देखो। क्या सारे संसार के लोग सुखी रहें और हम लोगों का परमबन्धु, पिता-मित्र-पुत्र सब भावनाओं से भावित, प्रेम की एकमात्र मूर्ति, सत्य का एकमात्र आश्रय, सौजन्य का एकमात्र पात्र, भारत का एकमात्र हित, हिंदी का एकमात्र जनक, भाषा नाटकों का एकमात्र जीवनदाता, हरिश्चंद्र ही दुखी हो! ( नेत्र में जल भरकर )---हा सज्जनशिरोमणे! कुछ चिंता नहीं, तेरा तो बाना है कि 'कितना भी दुख हो उसे सुख ही मानना'। लोभ के परित्याग के समय नाम और कीर्ति तक का परित्याग कर दिया है और जगत् से विपरीत गति चलके तूने प्रेम की टकसाल खड़ी की है। क्या हुआ जो निर्दय ईश्वर तुझे प्रत्यक्ष आकर अपने अंक में