पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/२३७

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१२१
सत्यहरिश्चंद्र

गया कि मैं मर कर भी सुख पाऊँ! ( कुछ धीरज धरकर ) तो चलूँ छाती पर वज्र धरके अब लोकरीति करूँ। ( रोती और लकड़ी चुनकर चिता बनाती हुई ) हाय! जिन हाथों से ठोक-ठोक कर रोज सुलाती थी, उन्हीं हाथो से आज चिता पर कैसे रखूँगी, जिसके मुँह में छाला पड़ने के भय से कभी मैंने गरम दूध भी नहीं पिलाया उसे---( बहुत ही रोती है )

हरि०---धन्य देवी, आखिर तो चंद्र-सूर्यकुल की स्त्री हो, तुम न धीरज धरोगी तो कौन धरेगा।

( शैव्या चिता बनाकर पुत्र के पास आकर उठाना चाहती और रोती है )

हरि०---तो अब चलें उससे आधा कफन माँगें। ( आगे बढकर और बलपूर्वक आँसुओ को रोक कर शैव्या से ) महाभागे! श्मशानपति की आज्ञा है कि आधा कफन दिए बिना कोई मुरदा फूँकने न पावे सो तुम भी पहले हमें कपड़ा दे लो तब क्रिया करो। ( कफन मॉगने को हाथ फैलाता है, आकाश से पुष्पवृष्टि होती है )

( नेपथ्य में )

अहो धैर्यमहो सत्यमहो दानमहो बलम्।
त्वया राजन् हरिश्चंद्र सर्वे लोकोत्तरं कृतम्॥

( दोनों आश्चर्य से ऊपर देखते हैं )