पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/२२१

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१०५
सत्यहरिश्चंद्र

उस दिन पृथ्वी किसके बल से ठहरेगी? ( प्रत्यक्ष ) महाराज! इसमें धर्म न जायगा, क्योंकि स्वामी की आज्ञा तो आप उल्लंघन करते ही नहीं। सिद्धि का आकर इसी श्मशान के निकट ही है और मैं अब पुरश्चरण करने जाता हूँ, आप विघ्नों का निषेध कर दीजिए।

[ जाता है

हरि०---( ललकार कर ) हटो रे हटो विघ्नो! चारों ओर से तुम्हारा प्रचार हमने रोक दिया।

( नेपथ्य में )

महाराजाधिराज! जो आज्ञा। आपसे सत्य वीर की आज्ञा कौन लॉघ सकता है!

खुल्यो द्वार कल्यान को, सिद्ध जोग तप आज।
निधि सिधि विद्या सब करहिं अपने मन को काज॥

हरि०---( हर्ष से ) बड़े आनंद की बात है कि विघ्नों ने हमारा कहना मान लिया।

( विमान पर बैठी हुई तीनों महाविद्याएँ* आती हैं )

महावि०---महाराज हरिश्चंद्र! बधाई है। हमी लोगों को सिद्ध करने को विश्वामित्र ने बड़ा परिश्रम किया था,


  • ब्रह्मा, विष्णु, महेश के वेश में पर स्त्री का श्रृंगार। खेलने में

चित्रपट द्वारा परदे के उपर इनको दिखलावेंगे और इनकी ओर से बोलने वाला नेपथ्य में से बोलेगा।