पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/२११

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
९४
भारतेंदु-नाटकावली

प्रानहुँ ते बढि जा कहँ चाहत।
ता कहँ आजु सबै मिलि दाहत॥
फूल बोझ हू जिन न सहारे।
तिन पै बोझ काठ बहु डारे॥
सिर पीड़ा जिनकी नहिं हेरी।
करत कपाल-क्रिया तिन केरी॥
छिनहूँ जे न भए कहुँ न्यारे।
तेउ बंधुगन छोड़ि सिधारे॥
जो दृगकोर महीप निहारत।
आजु काक तेहि भोज बिचारत॥
भुजबल जे नहिं भुवन समाए।
ते लखियत मुख कफन छिपाए॥
नरपति प्रजा भेद बिनु देखे।
गने काल सब एकहि लेखे॥
सुभग कुरूप अमृत विष साने।
आजु सबै इक भाव बिकाने॥
पुरु दधीच कोऊ अब नाहीं।
रहे नामही ग्रंथन मॉहीं॥

अहा! देखो वही सिर, जिस पर मंत्र से अभिषेक होता था, कभी नवरत्न का मुकुट रखा जाता था, जिसमें इतना अभिमान था कि इंद्र को भी तुच्छ गिनता था, और