पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/१७०

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समर्पण

मान्य योग्य नहिं होत कोऊ कोरो पद पाए।
मान्य योग्य नर ते, जे केवल परहित जाए॥
जे स्वारथ-रत धूर्त हंस से काक-चरित-रत।
ते औरन इति बंचि प्रभुहि नित होहिं समुन्नत॥
जदपि लोक की रीति यही पै अंत धर्म जय।
जौ नाहीं यह लोक तदपि छलियन अति जम भय॥
नरसरीर में रत्न वही जो परदुख साथी।
खात पियत अरु स्वसत स्वान मंडुक अरु भाथी॥
तासो अब लौं करी, करी सो, पै अब जागिय।
गो श्रुति भारत देस समुन्नति मैं नित लागिय॥
साँच नाम निज करिय कपट तजि अंत बनाइय।
नृप तारक हरि-पद भजि साँच बड़ाई पाइय॥


ग्रंथकार।



भा० ना०---३५