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सत्यहरिश्चंद्र

रहते हैं, इनके भिन्न-भिन्न। निस्संदेह हरिश्चंद्र महाशय है। उसके आशय बहुत उदार है, इसमें कोई संदेह नहीं।

इंद्र---भला! आप उदार वा महाशय किसको कहते हैं?

नारद---जिसका भीतर-बाहर एक सा हो और विद्यानुरागिता, उपकारप्रियता आदि गुण जिसमें सहज हों, अधिकार में क्षमा, विपत्ति में धैर्य, संपत्ति में अनभिमान और युद्ध में जिसकी स्थिरता है, वह ईश्वर की सृष्टि का रत्न है और उसी की माता पुत्रवती है। हरिश्चंद्र में ये सहज हैं। दान करके उसको प्रसन्नता होती है और कितना भी दे पर संतोष नहीं होता, यही समझता है कि अभी कुछ नहीं दिया।

इंद्र---( आप ही आप ) हृदय! पत्थर के होकर तुम यह सब कान खोल के सुनो।

नारद---और इन गुणो पर ईश्वर की निश्चला भक्ति उसमें ऐसी है जो सबका भूषण है, क्योंकि उसके बिना किसी की शोभा नहीं। फिर इन सब बातों पर विशेषता यह है कि राज्य का प्रबंध ऐसा उत्तम और दृढ़ है कि लोगों को संदेह होता है कि इन्हे राजकाज देखने की छुट्टी कब मिलती है। सच है, छोटे जी के लोग थोड़े ही कामों में ऐसे घबड़ा जाते हैं मानो सारे संसार का बोझ