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धनंजय-विजय
लीन्हें तुम्हैं छुड़ाइ जीति सुरगन छिन माहीं।
तब तुम सर-अभ्यास लख्यो बिहवल ह्वै नाहीं॥

विद्या०–देव ! यह बालक बड़ा ढीठा है।

इंद्र-क्यों न हो ! राजा का लड़का है।

दु०-सूत ! गुणों की भाँति इस कोरी बकवाद से फल क्या है? यह पृथ्वी ऊँची-नीची है इससे तुम अब समान पृथ्वी पर रथ ले चलो।

अ०-जो कुरुराज की इच्छा। (दोनों रथ जाते हैं)

विद्या०—(अर्जुन का रथ देख कर) देव० !

तुव सुत-रथ-हय-खुर बढ़ी, समय-धूरि नभ जौन।
अरि-अरनी मंथन अगिनि-धूम-लेख सी तौन॥

इंद्र-क्यों न हो तुम महाकवि हो।

विद्या०-देव! देखिए अर्जुन के पास पहुँचते ही कौरवों में कैसा कोलाहल पड़ गया, देखिए-

हय हिनहिनात अनेक गज सर खाइ घोर चिकारहीं।

बहु बजहिं बाजे मारु धरु धुनि दपटि बीर उचारहीं॥
टंकार धनु की होत घंटा बजहिं सर संचारहीं।

सुनि सबद रन को बरन पति सुरबधू तन सिंगारहीं॥

प्रति०-देव! केवल कोलाहल ही नहीं हुआ वरन् आपके पुत्र के उधर जाते ही सब लोग लड़ने को भी एक संग उठ दौड़े। देव ! देखिए, अर्जुन ने कान तक खींच-खींचकर जो बान चलाए हैं, उनसे कौरव-सेना में किसी

भा० ना०-२