पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/११४

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( १०८ )

प्रति ममता क्या हममें बढ़ती जा रही है? क्या दासवृत्ति छोड़कर औद्योगिक व्यापार की ओर लोग टूटे पड़ रहे हैं? क्या अपनी चाल छोड़कर विदेशी चाल ग्रहण करने में लोग कमी कर रहे हैं? किसी समय हम लोग भी स्वाधीन थे और भारतीय वीरों की हुँकार से दूर दूर देश के वीर भी एक बार थर्रा उठते थे, इसको क्या हम लोग एक दम भूल नहीं बैठे हैं? तब किस बात की आशा कवि दिलाता। वह अंत में अशरणशरण दयानिधि ईश्वर की शरण में जाता है, उपालभ देता है, अपनी दुर्दशा कहता है और सहायता की प्रार्थना करते हुए उसे पाने को आशा करता है---

कहाँ करुनानिधि केसव सोए!
जागत नेक न जदपि बहुत बिधि भारतवासी रोए॥
इक दिन वह हो जब तुम छिन नहिं भारत हित बिसराए।
इतके पशु गज को आरत लखि आतुर प्यादे धाए॥
इक इक दीन हीन नर के हित तुम दुख सुनि अकुलाई।
अपनी संपति जानि इनहि तुम रछ्यौ तुरतहि धाई॥
प्रलयकाल सम जौन सुदरसन असुर-प्रान-संहारी।
ताकी धार भई अब कुंठित हमरी बेर मुरारी॥
दुष्ट जवन बरबर तुव संतति घास साग सम काटे।
एक एक दिन सहस-सहस नर-सीस काटि भुव पाटै॥
है अनाथ भारत कुल-विधवा बिलपहिं दीन दुखारी।
बल करि दासी तिनहिं बनावहिं तुम नहिं लजत खरारी॥
कहाँ गए सब शास्त्र कही जिन भारी महिमा गाई।
भक्तबछल करुनानिधि तुम कहँ गाया बहुत बनाई॥