पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/११३

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इस नाटक में वीर रस प्रधान है पर करुण तथा हास्य का भी अच्छा पुट है। क्षत्रिय वीरो का धर्म-युद्ध के लिए तैयार रहना और अपने राजा के कैद हो जाने पर भी देश पर बलिदान होने के लिए तत्परता दिखलाने में उत्साह भरा हुआ है। प्रतिपक्षियों का भी येन केन प्रकारेण शत्रु को परास्त करने का उत्साह उन्हीं के योग्य है। देश की दुर्दशा के वर्णन तथा ईश्वर के आह्वान में कितनी करुणा भरी है यह उसे पढ़कर सहृदय ही बतला सकता है। चपरगट्टू तथा पीकदान अली की बाते और पागल के प्रलाप से हँसी आ ही जाती है। इस प्रकार देखा जाता है कि इन रसों का नाटक में अच्छा परिपाक हुआ है।

भारतेन्दु जी में देश-प्रेम पराकाष्ठा को पहुँच चुका था। वे रोते थे तो देश के लिए और हँसते थे तो देश के लिए। उनका नैराश्य भी देश की दुर्दशा और देश के सुपुत्रों की उत्साह-हीनता देखकर ही हुई थी और इसी से कह दिया कि---

सब भॉति दैव प्रतिकूल होइ एहि नासा।
दुख ही दुख करिहै चारहु ओर प्रकासा॥

और भी कहते है---

वीरता एकता ममता दूर सिधरिहै।
तजि उद्यम सब ही दास वृत्ति अनुसरिहै।
निज चाल छोड़ि गहिहै औरन की धाई।
रहे हमहुँ कबहुँ स्वाधीन आर्य बलधारी।
यह दै हैं जिय सो सब ही बात बिसारी॥

इनमें क्या एक भी बात असत्य है? वीरता, एकता, देश के