पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/१०९

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देखिए---'ये कृष्ण-वरन जब मधुर तान' इस पंक्ति का 'कृष्ण बरन' कितने अर्थों से गर्भित है और कैसा क्षोभ-पूर्ण है। ये काले हैं, ऐसा कहकर आज हमें घृणा की दृष्टि से देखते हो। पर इन्हीं कृष्णकाय पुरुषों के दिग्विजय से पृथ्वी किसी समय थर्रा उठती थी, कपिलदेव, बुद्ध आदि इसी वर्ण के थे और भास, कालिदास, माघ आदि कवि गण भी काले कलूटे थे। इन लोगों के विजय-यात्रा-वर्णन, उपदेश तथा काव्यामृत काले ही अक्षरों में लिखे जाते हैं, पर फल क्या? अाज---

हाय वहै भारत भुव भारी। सब ही विधि सों भयो दुखारी॥

भारत का स्वातंत्र्य-सूर्य पृथ्वीराज चौहान के साथ साथ अस्त हो गया और यह देश दूर देश से आए हुए यवनों से पादाक्रांत होकर परतंत्रता की बेड़ी में जकड़ गया। जाति का वैरही जाति बन बैठा और कई शताब्दियों तक उनका प्रभुत्व जमा रहा। हिंदुओं ने स्वातंत्र्य के लिए घोर प्रयत्न किया और स्यात् वे उसमें सफल भी होते पर नई वाह्य शक्तियों ने आकर उनके उस प्रयास को विफल कर दिया और उसकी वही दशा ज्यो की त्यों बनी रह गई। स्वभावतः समान दुःख के साथी मिलने से दुःखी हृदय को कुछ धैर्य मिल जाता है। भारत ही के समान ग्रीस और रोम भी पहिले बहुत उन्नत थे, पर बाद को अर्वाचीनकाल में इनकी अवस्था बहुत खराब हो गई थी। इन दोनों ने पुनः उन्नति कर ली है पर भारत वैसा ही बना रह गया, जिससे उसे---

रोम ग्रीस पुनि निज बल पायो। सब बिधि भारत दुखी बनायो॥