से भी ज्ञात होता है कि इन सबका उल्लेख मौर्य कालीन होने के नाते नहीं है प्रत्युत् नाटककार-कालीन होने से है। काश्मीर-नरेश पुष्कराक्ष का समय चौथी-पाँचवी शताब्दि है। कांबोज, खस, मलय आदि जातियों का उल्लेख भी जिस प्रकार हुआ है, उससे उन्हीं शताब्दियों का द्योतन होता है। शक जाति विक्रम शाका के कुछ ही पहिले भारत में आई और चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के समय सन् ३९४ ई० के लगभग उसका उत्तर भारत से लोप हो गया। ऐसी हालत में उक्त जाति का उल्लेख इस नाश के आसपास ही होना चाहिए, बहुत बाद का नहीं। हूणों का उल्लेख भी उनके प्रबल होने के पहिले का है अर्थात् गुप्तकाल के प्रथम तीन सम्राटों के समय का है, स्कंदगुप्त आदि के समय का नहीं है। अतः इन सबसे नाटक का निर्माण काल चौथी शताब्दि ही ज्ञात होता है।
९---भारत दुर्दशा
भारतेन्दु जी ने भारतवर्ष के प्राचीन गौरव तथा वर्तमान दुरवस्था को दृष्टि में रखकर तथा भारतोदय की हार्दिक इच्छा रखते हुए भी दासता-प्रेमी भारतीयों के हृदय में स्थायी प्रभाव डालने के लिए यह दुखांत रूपक लिखा था। यह छ अंकों में विभक्त है। पहिले में एक योगी आकर एक लावनी गाता है और उसमें अत्यंत संक्षेप में भारत के प्राचीन गौरव का तथा वर्तमान दुर्दशा का उल्लेख करते हुए कहता है कि अब भारत की दुर्दशा नहीं देखी जाती। दूसरे अंक में 'भारत' स्वयं आता