पृष्ठ:भारतीय समकालीन दर्शन में प्रोफेसर रानडे के योगदान का समीक्षात्मक अध्ययन.pdf/१७

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(३) को धर्म के माध्यम से भी अभिव्यक्त किया | अनुभूतियों एवं प्रवृत्तियों मे संतुलन और सामंजस्य स्थापित करना किसी तर्कनिष्ठ प्रणाली के लिए संभव नहीं । इसके लिए एक आध्यात्मिक चिन्तन की आवश्यकता हैँ जिसके द्वारा यह तथ्य स्वतः पामाण्य के रूप में प्रस्तुत हो सके। धर्म इसके लिए तात्कालिक अनुभूति उपस्थित करता हैं । इस प्रस्तुतीकरण का माध्यम है रहस्यवाद। धर्म का शाब्दिक अर्थ विन्यास इसे और अधिक स्पष्ट कर देता है। धर्म को नि्पात्ति 'ध्‌ृ धातुसे हुई तात्पर्य हैं धारण करना । इसका आश्यय उस विश्वास अथवा आस्था से है जो व्यक्ति के सम्पूर्ण जीवन या व्यक्तित्व को धारण करें |

वस्तुतः दर्शन के साथ ही धर्म भी सत्यानुभूति का सशक्त माध्यम माना जाता हैं| भारत में त्तो दर्शन एवं धर्म परस्पर समन्वित होकर सत्यान्वेषण एवं साक्षात्कार के लिए प्रवृत्त होते हैं। बिना धार्मिक अनुभूति के दर्शन की स्थिति निष्फल है और बिना दार्शनिक विचार के द्वारा परिपुष्ट हुए धर्म की सत्ता अप्रतिष्ठित हैं। दोनोंके परस्पर सम्बन्ध का निरूपण अंधे एवं लंगडे के परस्पर सहयोग द्वारा जंगल से 'बाहर निकलने जैसा है। धर्म अनुभूति की तात्कालिक उपलब्धि का सशक्त माध्यम हँ जब कि दर्शन शास्त्र में ऐसी अनुभूति का अभाव हैं।

भारतीय दर्शन के अंतर्गत दर्शन एवं धर्म का समन्वित प्रयास वेदांत से ही प्रारम्म हो जाता है. परन्तु समकालीन दार्शनिकों ने इस समन्वय को और अधिक सुदृढ़ किया | वेदों और उपनिषदों में ऋषियों और महर्षियों की दिव्य दृष्टि द्वारा परमतल्व का वर्णन मिलता हैं। वह जनसाधारण के लिए ग्राह्म नहीं है । अतः रानडे ने दर्शन एवं धर्म से समन्वित इस प्रयास की अभिव्यक्ति रहस्यवाद के माध्यम से प्रस्तुत की | इस 'अभिव्यक्ति के लिए उन्होंने हिन्दी के सन्‍्तों एवं मध्ययग्रीन महाराष्ट्रीय 'सनन्‍्तों की अनुभूतियों का अध्ययन किया | सन्‍्तों के चिन्तन एवं उपदेश में. 'उक्त दोनों पक्ष अर्थात्‌ दर्शन और धर्म का समन्‍्वयात्मक दृष्टिकोण उप- लब्ध होता हैं । रानडे की सबसे बडी विशिष्टता हैं कि वे जिस तथ्य का “कथन प्रस्तुत करते हैं उसकी अनुभूति द्वारा प्रामाणकता की जांच