६२ प्राचीनलिपिमाखा. लिपिपत्र १७वे की मूल पक्तियों का नागरी अपरांतर- ओं स्वस्ति जयपुरात्परममाहेश्वरः श्रीमहाराजलक्ष्म- णः कुशलौ फेलापर्वतिकापामे ग्राह्यसादौन्प्रतिवासिकु- दुम्बिनः समाज्ञापयति विदितं वोस्त यथेष ग्रा- मो मया मतापिन्बोरात्मनश्च पुण्याभिवृक्षर कौत्सस- ७ कुटिल लिपि. . स.की छठी से नबी शताब्दी ( लिपिपत्र स२३) ई. स. की छठी से नवीं शताब्दी तक की बहुधा सारे उत्तरी भारतवर्ष की लिपि का, जो गुप्तलिपि का परिवर्तित रूप है, नाम ‘कुटिललिपि कल्पना किया गया है. 'कुटिलाक्षर नाम का प्राचीन प्रयोग भी मिलता है परंतु वह भी उसके वर्णों और विशेष कर मात्राओं की कुटिल आकृतियों के कारण रक्खा गया हो ऐसा अनुमान होता है। इस लिपि के अक्षरों के सिर पहुधा - ऐसे होते हैं परंतु कभी कभी छोटी सी आड़ी लकीर से भी वे बनाये जाते हैं. अ. भा, घ, प, म, य, ष और 'स' का ऊपर का अंश दा विभागवाला होता है और बहुधा प्रत्येक विभाग पर सिर का चिह जोड़ा जाता है यह लिपि मंदसोर से मिले हुए गजा पशोधर्मन् के लेग्वी". महानामन् के बुद्धगया के लेग्वों', ' ये मूल पंक्तियां पाली गांव से मिल हुए महाराज लक्ष्मण के दानपत्र ( ...जि २.१ ३६४ के पास के प्लेट) से उद्धृत की गई है • देवल (युक्तप्रदेश में पीलीमीन से २० मील पर) गांव से मिली हुई वि में १०४ । म ६६ } का प्रशस्ति में 'कुटिलाक्षराणि विगहरे ननयम च विनोन कायिका कटिना घणि विदुर तहदि त्यभिचानन । ऐं : जि १, पृ८१) और विक्रमांकदेवचरित में कुटिललिपिमिः' (कसमर्थ कुरिनिििभम विभाट १८.४२) लिस्वा मिलता है. उनमें कुटिल' शब्द क्रमशः अक्षगे तथा लिपि का विशेषरण है परंतु उनमें उस समय की नागरी की. जो कुटिल स मिलती हुई यी. 'कुटिल संज्ञा मानी है. मेवाड़ के गुहिलवंशी गना अपराजित के समय की वि स. ७१८ ( ई स ६६९) की प्रशस्ति के अक्षरों को विकटाक्षर'कहा है ( यशोभन तपमुस्कीगो बिकटाक्षर। पं. जि४पृ ३०), और अस्पद के लेख में (फ्ली: गु., लेखसंख्या ४२) 'विकटाक्षगणि' लिखा मिलता है 'विकट' और 'कुटिल' दोनों पर्याय हैं और अक्षरों की प्राकृति के सूचक है . कुटिललिपि में अक्षरों की खड़ी रेखाएं नीचे की तरफ बाई ओर मुड़ी हुई होती है और स्वरों की मात्राएं अधिक टेढी मेढी तथा लंबी होती हैं इसी में उसका नाम कुटिल पड़ा ४ गजा यशोधर्मन् के तीन लेख मंदसोर से मिले हैं जिनमें से एक मालब(विक्रम) सं. ५८६ (इ. स. ५३२) का है फ्ली: गुप्लेट २१B,C, और २२). महानामन् मामवाले दो लेख बुद्धगया से मिले हैं (क्ली : गु.: प्लेट ४१ A और B) जिनमें से एक में सवत् २६६ है. यदि यह गुम संवत माना जाये तो इसका समय ई. स ५८ होगा 1
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