ब्राह्मी लिपि. ४५ (ग्वम् या गुं) प्रयोगवाह. अनुस्वार.. विसर्ग. जिह्वामूलीय.२ xक उपध्मानीय. प व्यंजन, स्पर्श. ग्व xक्व ग घ ज त्र तु E थ द ध भ म उनके लिये स्वतंत्र संकेत और मात्रा मिलती है वैस ही प्राचीन काल में प्लुत स्वर्ग के लिये भी कोई विशेष चि रहे होंगे जिनका अब पता नहीं चलता जैसे वर्तमान नागरी में 'श्री' और 'श्री', और गुजगती तथा मोडी (मराठी) में 'ए','ए','ओ'और 'मी' के मूल संकत न रहने से 'अ' पर ही मात्रा लगा कर काम चलाया जाता है (श्रे, श्रे, श्रो, ना-गुजराती) वैसे ही प्लुन के प्राचीन चि_ी के लुप्त होने पर दीर्घ के श्राग ३ का अंक लगाया जाने लगा हो वस्तुतः संस्कृत साहित्य में भी प्लुत का प्रयोग क्रमशः बिलकुल उठ गया संघांधन, वाक्यारंभ, यज्ञकर्म, मंत्रों के अंत, यज्ञ की श्रानापं, प्रत्युत्तर, किसी के कह हुए वाक्य को दोहगने, विचारणीय विषय, प्रशंसा, आशीर्वाद, कोप, फटकारने, सदाचार के उलंघन आदि अवसरों पर वैदिक साहित्य और प्राचीन संस्कृत में प्लुत का प्रयोग होता था (पाणिनि, ८.२.२२-१०८), परंतु पीछे से केवल संबोधन और प्रणा- म के प्रत्युत्तर में ही इसका व्यवहार रह गया पतंजलि ने व्याकरण न पढ़नेवालो को एक पुरानी गाथा उद्धृत करके डरा- या है कि यदि तुम अभिवादन के उत्तर में प्लुत करना न जानोगे तो तुम्हें स्त्रियों की तरह सादा प्रणाम किया जायगा. इस से यह तो स्पष्ट है कि स्त्रियों की बोलवाल से तो उस समय प्लुन उठ गया था परंतु पीछे से पुरुषों के व्यवहार से भी वह जाता रहा केवल कहीं कहीं वेदों के पारायण में और प्रातिशाख्यो तथा व्याकरणों के नियमों में उसकी कथा मात्र बची है. 'प', 'पे', 'मो' और 'औ' के प्नुत, कहीं पूरे संध्यवर का प्लुत करने से, और कहीं 'इ' और 'उ' को छोड़ कर केवल 'प्र' के प्लुत करने से बनते थे, जंस अग्ने३ या अग्नाश । अनुस्वार नकार (मनुनासिक) का स्वरमय उच्चारण दिखाता है वेदों में जब अनुस्वार 'र', 'श', 'ष' और 'ह' के पहिल पाता है तब उसका उधारण 'ग' से मिश्रित 'गु' या ग्वं' सा होता है जिसके लिये वेदों में चिहै यह यजुर्वेद में ही मिलता है. शुक्लयजुर्वेद के प्रातिशाख्य में इसके द्वस्व, दीर्घ और गुरु तीन भेद माने गये है जिनके न्यारे म्यारे चिन्हों की कल्पना की गई हैं प्राचीन शिलालेखादि में कभी कभी 'वंश' की जगह 'वंश' और 'सिंह' के स्थान में 'सिंह' स्यदा मिलता है अनुस्वार का 'श' के पहिले ऐसा उच्चारण आर्यकठों में अब भी कुछ कुछ पाया जाता है और कई बंगाली अपने नार्मों के हिमांशु, सुधांशु आदि को अंगरेजी में Humangshu. Sndlmngshu ( हिमांगशु, सुधांगशु ) मादि लिख करके उच्चारण की स्मृति को जीवित रखते हैं. 'क' और 'ख' के पूर्व विसर्ग का उच्चारण विलक्षण होता था और जिह्वामूलीय कहलाता था. इसी तरह 'प' और 'क'के पहिले विसर्ग का उच्चारण भी भिन्न था और उपध्मानीय कहलाता था. जिह्वामूलीय और उपध्मानीय के न्यारे न्यारे विकथे, जो कभी कभी प्राचीन पुस्तको, शिलालेखों और ताम्रपत्रों में मिल आते हैं, जो अक्षरों के ऊपर, बहुधा उनसे जुड़े हुए, होते हैं, और उनमें भी अक्षरों की मांई समय के साथ परिवर्तन होना पाया जाता है (देखो लिपिपत्र १७, २१, २२, २३, २८, २९ मादि). बोपदेव ने अपने व्याकरण में अनुस्वार को 'बिंदु', विसर्ग को 'विबिंदु', जिह्वामूलीय को 'बजाकृति'भीर उपध्मानीय को 'गजकुंभाकृति' कह कर उनका स्वरूप बतलाया है. १. ऋग्वेद में दो स्वरों के बीच के 'ड' का उच्चारण 'ळ' और वैसे ही आये हुए ह' का उच्चारण न्ह होता है. इन दोनों के लिये भी पृथक् चिक हैं. 'ळ' का प्रचार राजपूताना, गुजरात, काठियावाड़ और सारे दक्षिण में अब भी है और उसका संकेत भी अलग ही है जो प्राचीन 'ळ' से ही निकला है. 'ह' को आज कल 'ळ' और 'ह' को मिला कर (व्ह ) लिखते है, परंतु प्राचीन काल में उसके लिये भी कोई पृथक् चिनियत होगा, क्योंकि प्राचीन तेलुगु-कनडी, ग्रंथ और तामिळ खिपियों के लेखों मे 'ळ' के अतिरिक एक और मिलता है. वैसा ही कोई चिक के स्थानापन 'व्ह' के लिये प्राचीन पैविक पुस्तकों में होना चाहिये. २
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