प्राचीनलिपिमाला ताक्षरों का प्रयोग विरलही होता था, इसमें लिखे हुए मिले हैं, परंतु यह लिपि संस्कृत ग्रंथों' के लिखने के योग्य नहीं थी. शुद्धता और मंपूर्णता के विचार मे दंग्वा जावे तो इसमें और ब्राह्मी में उतना कलकत्ता हाई कोर्ट के भूतपूर्व जज पॅफ ई पार्जिटर नामक विद्वान् ने 'दी पुगण टेक्स्ट ऑफ दी डाइनेस्टीज़ ऑफ दी कलि गज़' ( कलियुग के गजयशा के संबंध के पुगणों के मूल पाठ ) नामक पुस्तक में यह धन लाने का यत्न किया है कि पुगणों के ये पाठ मूल में खरोष्ठी लिपि में और पीछ से उसपर से ग्राह्मी में लिख गये होंगे इसक प्रमाण में लिखा है कि 'विष्णुपुगण में बहुधा अशोकवर्धन नाम मिलता है परंतु उसकी एक हस्तलिखित प्रति ।। II में प्रयोशाक- वर्धन पाठ हैं. यहां पर लखक ने शो को गलती मे 'यो पढ़ कर वसा ही लिखा यार उसने ( या किसी दुसरे ने यह ग़लती देखी और उस प्रति में 'शा लिखा या बढ़ा दिया परंतु या' को कारा नहीं और अशुद्ध नाम अयोशाक बना रहा और जब वह प्रनि । I) लिखी गई तब तक वैसी ही नक्ल होती रही हिदुस्तान की केवल खंगष्ठी लिपि मे ही 'यो' और 'शा' अक्सर एक मलिग्व जाते है अत एव यह प्राय. निश्चित ही है कि विपणुपुगण में यह अंश अवश्य मूल खगष्टी हम्नलिम्पित प्रति से लिया गया होगा । पृ ८४ ) इमी तरह विष्णुपुगण की एक प्रनि । -में काशल' के स्थान पर कोयल और वायुपुगण की एक प्रति : । L. में 'शालिशक' के स्थान पर शालियुकपाट मिला इन तीनों स्थानों में श के स्थान पर य लिखा है इसी तरह मत्स्यपुराण की एक हस्तलिम्पित प्रति में काशया.' के स्थान पर 'कालेया. और वायुपुगण में कही यही शंगभृत्य के स्थान पर 'गंगन्य पाठ मिला ( पृ ८५ ' इन थोडम लखक दोषों पर में मि पाजिटर ने यह अनुमान कर लिया कि लग्वक ने श को 'य'वा ल.'और 'भ' को क पढ़ लिया और यह अशुद्धता खगष्ठी में ब्राह्मी मे नक्ल करने से ही हुई होगी परंतु खगेष्टी लिपि के जितने लग्व श्रय नक मिले है उन सय में मियाय वर्डक के पात्र पर के लग्न के श और य म म्पट भेट पाया जाता है। देखा लिपिपत्र १५ ७०). 'श' और 'ल' में, और भ तथा क मे भ्रम होने की संभावना बहुत ही कम है क्योकि उनमे म्पष्ट अंतर है ग्वगष्ठी लिपि में वाम्नच मे भ्रम उत्पन्न कगने वाले अक्षग मे से और न, म विशष भेद बहुधा नहीं मिलता, तथा न न और इन तीन अक्षग में परस्पर भेट मालूम करना मामला लेखक के लिय कठिन है. इसी तरह स्त्रग नथा उनकी मात्रा में हस्थ दीर्घ का भेद न होने तथा विमग श्रीरलंत व्यंजनों का प्रभाव होने में स्विग नया उनकी मात्रा व विमर्ग हसंत व्यंजन तथा संयुक्त व्यंजनों की शुद्ध नकल होना था असंभव है रस लिये यदि पुगगों के ये अंश खगष्टी से ब्राह्मी में नकल किये गये होते तो उनम श्रा है ऊ 'श्रीर श्री अक्षर तथा उनकी मात्राश्री का तथा विमगे और हलंत न्यंजनों का सर्वथा अभाव होना और न' नथा ग एवं 'न न और अक्षगं वाले शब्दों में हज़ारहां गलतियां मिलती फ्योकि पुम्तको की नकल करने वाले मम्कन के विद्वान नहीं किनु मामूली पड़े हुए लोग होते है और जैमा मृल प्रति में देखत है वैसा ही लिख डालन है. मनिकाम्यान मक्षिका। श्रत पय पुगणों के हस्तलिग्विन गजवंशवर्णन के अंश जिस स्थिति में हमें इस समय मिलत है उस स्थिति में सर्वथा न मिलते किंतु कातंत्र व्याकरण के प्रारंभ के संधिया तक के पांच पादों के सूत्रों की जो दशा हम गजपतान की मीधा की पांच पाटिया में देखते है उससे भी बुरी दशा में मिलते परंतु ऐसा न होना यही बतलाता है कि वे प्रारंभ से ही ब्राह्मी लिपि में लिम्ब गरी थ और उनकी ननं ग्रामं नथा उसमें निकली हुई भिन्न भिन्न लिपियो में ममयानुसार होती रही मि. पार्जिटर ने खगठी में ब्राह्मी में नकल करने में जहां हज़ारहा अशुद्धियां होने का संभव था उन अनगं का तो ननिक भी विचार न किया मी दशा में हम उक्त कथन को किसी तरह प्रादग्गीय नहीं मान सकतं प्रसिद्ध पुगतन्यता डॉ मंन कॉनी ने भी उक्त पुस्तक को ममाला- राजपूताने में विद्यार्थियों को पहिल कातंत्र व्याकग्गा पढ़ाया जाता था और उस प्राचीन परिपाटी के अनुसार अब नक भी पुगने ढंग की पाठशालाओं में उमक प्रारंभ के संधि विषयक पांच पाद पटाये जाते है कातंत्र व्याकरण के प्रथम सूत्र का पहिला शन्य सिद्धा' (सिद्धा वर्णममाम्नाय होने से उनका 'सीधी कहते है और उन पांच पादों को 'मीधी की पाच पार्टी' कहते है संस्कृत न जानने वालों के द्वारा उनकी नकल तथा पढ़ाई होने होने उम समय उनकी कैसी दुर्दशा होगई है और मूल में नथा उनमें कितना अंतर पड़ गया है यह बतलाने के लिये उनक प्रारंभ के थोड़े में सत्र नीचे उड़न किये जाते है कातंत्र सिद्धा वर्णसमाम्नायः । तत्र चतुर्दशादी स्वगः । दश ममानाः । तपां दी डायम्योन्यस्य सवौँ । मोधा -मीधो बरना ममामुनाया । चचचदामा दउमेवाग । बम ममाना । तंसुदुभ्याबरणा नसीसबरणा । कातंत्र पर्षों स्वः। परी दीर्घः । म्वरोऽवर्णवर्जी नाम । एकागदीनि सन्ध्याक्षराणि । कादीनि म्यजमानि । मीधी प्रग्बी हंसबा । पागे दीग्घा। सागेघरला विणज्यो नामी। ईकगदेणी संधकगणी ।कार्दामाव.विणज्योनामी। कातच ते वर्गाः पत्र पञ्च मीधो ते विरघा पंचा पंचा 1
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