२६ ब्राह्मी लिपिकी उत्पति. चाहं माक्षरममाज ब्रामणों की लिपि होने में यह ब्राची कहलाई हो', पर इसमें संदेह नहीं कि इसका फिनिशिअन् से कुछ भी मंबंध नहीं. भादर्श लिपि में यह गुण होना चाहिये कि प्रत्येक उच्चारण के लिये असंदिग्ध संकेत हो जिमसे जो बोला जाय वह ठीक वैसा ही लिग्वा जाय और जो लिग्वा जाय वह ठीक वैसा ही पढ़ा जाय. उच्चारित अक्षर और लिग्विन वर्ण के इम मंबंध को निभाने के उद्देश्य का विचार करें तो ब्राह्मी लिपि सर्वोत्तम है और इममें और ममिटिक लिपियों में रात दिन का मा अंतर है. इसमें स्वर और व्यंजन पूरे हैं और स्वरों में इम्व. दीर्घ के लिय तथा अनुस्वार और विमर्ग के लिये उपयुक्त संकेत न्यारे न्यार हैं; व्यंजन भी उच्चारण के स्थानों के अनुमार वैज्ञानिक क्रम मे जमाये गए हैं. इसमें किसी प्रकार की टि नहीं है और आर्य भाषाओं की ध्वनियों को व्यक्त करने के लिये इममें किसी प्रकार के मंशोधन या परिवर्तन की अपेक्षा नहीं है व्यंजनों के साथ स्वरों के मंयोग को मात्रा के चिरी में प्रकट करने की इममें गमी विशेषता है जो किमी और लिपि में नहीं है. महित्य और सभ्यता की अनि उच्च अवस्था में ही गमी लिपि का विकास हो सकता है वैदिक और प्राचीन मंस्कृत वाङमय के ६३ या २४ मृल उच्चारणों के लिये केवल १८ उच्चारणों के प्रकट करने वाले २० मंकतों की दरिद्र ममिटिक लिपि कैम प्रयास होती ? ममिटिक लिपि में और उमम निकली मभी लिपियों में म्बर और व्यंजन पृथक पृथक नहीं हैं स्वर्ग में हस्व दीर्घ का भद नहीं. न उनके अक्षर विन्याम का कार्ड भी क्रम है. एक उच्चारण के लिये एक से अधिक चित्र हैं और एक ही चित्र एक नहीं. किंतु अनेक उच्चारणों के लिये भी है. व्यंजन में म्वर का योग दिग्वलाने के लिये मात्रा का मंकन नहीं. परंतु म्बर ही व्यंजन के आगे लिग्ना जाना है और मंयुक्त ध्वनि के लिये वर्णों का मंयांग नहीं. म्वर भी अपूर्ण हैं. मी अपूर्ण और क्रमरहिन लिपि को ले कर. उसकी लिग्नावट का मग्व पलट कर. वणों को नांद मगेन कर, केवल अट्ठारह उच्चारणों के चिक उसमें पाकर बाकी उच्चारणां के मंकन स्वयं गढ़ कर. म्बरों के लिये मात्राचिन बना कर. अनुस्वार और विसर्ग की कल्पना कर, म्वर व्यञ्जनों को पृथक कर. उन्हें उच्चारण के स्थान और प्रयत्न के अनु मार नए क्रम में मजा कर मांगपूर्ण लिपि बनाने की योग्यता जिम जानि में मानी जाती है. क्या वह इतनी सभ्य नहीं रही होगी कि कंवल अट्टारह अन्नगे के संकता के लिये दूसरों का मुंह न नाक कर उन्हें स्वयं ही अपने लिय यना ले? ऍडवर्ड थॉमम का कथन है कि 'ब्रामी अक्षर भारतवासियों के ही बनाये हुए हैं और उनकी सरलता से उनके यनाने वालों की बड़ी बुद्धिमानी प्रकट होती है. प्रॉफसर डॉमन का लिग्वना है कि 'ब्रामी लिपि की विशेषताएं मय नरह विदेशी उत्पत्ति में उसकी स्वतंत्रता प्रकट करती हैं और विश्वास के माथ आग्रहपूर्वक यह कहा जा सकता है कि सब नर्क और अनुमान उमके स्वतंत्र आविष्कार ही होने के पक्ष में हैं. जेनरल कनिंगहाम का मत यह है कि ब्राह्मी लिपि भारतवामियों की निर्माण की हुई स्वतंत्र लिपि है. प्रोफेसर लॅसन्' ब्राह्मी लिपि की विदेशी उत्पत्ति के कगन को मर्वथा अस्वीकार करता है. हिन्दुस्तान का प्राचीन इतिहास अभी तक घने अंधकार में छिपा हुआ है. पुराने शहरों और बस्तियों के चिन्ह वर्तमान धरातल से पचासौ फुट नीचे हैं. क्योंकि बार बार विदेशियों के अाक्रमणों से पुराने स्थान नष्ट होने गये और उन पर नए बसने गए. सारा देश एक राजा के अधीन न होने से कमवद्ध इतिहास भी न रहा प्राचीन इतिहास का शोध अभी हमारे यहां भारंभिक अवस्था में है तो भी उसमे जितना कुछ मालूम हुआ है वह बड़े महत्व का है, परंतु अधिक प्राचीन काल के म्यु. क्रॉईम १८८३. नंबर ३ ब.रों प. सोई.स १८८१, पृ. १०२: और इ.प.जि. ३५, पृ २५३ .कॉ.प.जि.१. पृ ५२ D Indoche Altes thropskunde, 'nd Filtron p 100G (1867)
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