पृष्ठ:भारतीय प्राचीन लिपिमाला.djvu/३९

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6 भारतवर्ष में लिखने के प्रचार की प्राचीनता लिम्बना न जानने वालों को न ना परार्ध तक की संख्या का ज्ञान होता है और न उनको 'प्रयुत, 'भयुत' आदि बड़ी संख्याओं के मृचक शब्दों के गढ़ने या जानने की आवश्यकता होती है. ऐसी संख्या का जानना लिग्वना जानने के पीछे भी केवल उस दशा में होता है जब गणिनविद्या अच्छी अवस्था को पहुंच जाती है. ग्रीक लोग जब लिम्बना नहीं जानने थे उम ममय उनका अधिक में अधिक १०००० नक का ज्ञान था और रोमन् लोग मी दशा में केवल १००० तक ही जानते थे. इस समय भी हमारे यहां के जो मनुष्य लिम्वना नहीं जानतं वे बहुधा १०० नक भी अच्छी तरह नहीं गिन सकते; यदि उनसे पचामी कहा जावे तो वे कुछ न ममझेंगे और यही प्रश्न करंग कि पचामी कितने होते हैं ? जब उनको यह कहा जायगा कि 'चार बीसी और पांच'तभी उनको उक्त मंख्या का ठीक ज्ञान होगा. वे २० तक की गिनती जानते हैं जिमको 'बीमी' कहने हैं: फिर एक बीमी और मान (२७), चार बीमी और पांच (८५), इम नरह गिनने हैं. यदि हम यह चेष्टा करें कि लिग्वना न जानने वाले दो पुरुषों को बिठला कर एक में कहें कि तुम कोई एक लंबा गीत गाओ' और दूसरे से कहें कि 'यह जो गीत गाता है उमक तुम अक्षर गिन कर बतलाना कि वे कितने हुए और फिर छत्तीम छत्तीम अक्षरों में एक छंद बनाया जाये तो उन अक्षरों मे ऐमें कितने छंद होंगे?' यदि वह गीत एक या दो पृष्ठों में लिग्वा जावे इतना छोटा भी होना भी वह न तो अक्षरों की और न छंदों की संख्या ठीक ठीक बतला सकेगा, तो ऋग्वंद, यजुर्वेद और मामवेद जैमे पुस्तकों के, जो १००० पृष्ठ में भी लिम्ब कर पूरे नहीं होते और जिनके सुनने में कई दिन लग सकते हैं. अक्षरों की नथा उनमें बन मकने वाले छंदों की गिनती बिना लिम्बित पुस्तक की नथा गणित की महायना के करना मनुष्य की शक्ति के बाहर है. अन एव यह मानना पड़ेगा कि जिमने तीनों वेदों के अक्षरों की संख्या और उनम बनने वाल बृहती और पंक्ति छंदों की मंग्या यतलाई है उसके पाम उक्त नीनों वेदों के लिग्वित पुस्तक अवश्य होंगे, वह छंदःशास्त्र से परिचित होगा और कम से कम भाग तक का गणित भी जानता होगा. ऐसे ही ऊपर लिग्व हुए यज्ञ की दक्षिणा तथा समयविभाग आदि के विषयों मे अंक- विद्या की उन्नत दशा का होना मानना ही पड़ता है. लिम्वना न जानने की दशा में भी छंदोबद्ध मंत्र, गीन, भजन आदि बन सकते हैं और बहुत ममय तक वे कंठस्थ भी रह सकते हैं परंतु उस दशा में बड़े बड़े गयग्रन्थों का बनना और सैंकड़ों वरमों तक उनका अक्षरशः कंट रहना किर्मा नरह मंभव नहीं. वंदों की महिनामी में कि- सना एक अंश और ब्राह्मणों का बहुत बड़ा भाग गद्य ही है और वं वेदों के टीकारूप हैं. लिग्बना न जानने और वेदों के लिग्नित पुस्तक पाम न होने की दशा में ब्राह्मण ग्रंथों आदि की रचना की कल्पना भी भमभव है. ऊपर हम बतला चुके हैं कि ई.म. पूर्व छठी शताब्दी के ग्राम पाम पाठशाला विद्यमान थीं. पाणिनि और यास्क के ममय अनेक विषयों के ग्रंथ विद्यमान थे. उनसे पूर्व ब्राह्मण और वेदा के समय में भी व्याकरण की चर्चा थी, छंदःशाम्ब बन चुके थे, अंकविद्या की अच्छी दशा थी. वेदा के अनुव्याख्यान भी थे, गणक ( गणित करने वाल ) होने थे, जानवरों के कानों और जुए के पामों पर अंक भी लिखे जाने थे, जुए में हारे या जीते हुए धन का हिमाष रहता था और समय के एक मेकंड के १७ वें हिस्मे तक के मृक्ष्म विभाग बने हुए थे: ये मव लिम्वन के स्पष्ट उदाहरण हैं. प्राचीन हिंदुओं के समाज में वेद और यज ये दो वस्तु मुख्य थीं, और मब मांसारिक विषय पटना को गौर निचित वहीं नक सम्हाले जाने थे जहां तक वे इनके महायक होते थे. यज्ञ में वेद के मंत्रों के शुद्ध प्रयोग की बड़ी आवश्यकता थी. इस लिये उनका शुद्ध उच्चारण गुरु के मुख से ही पढ़ा जाना था कि पाठ में स्वर और वर्ण की मशृद्धि. जो यजमान के नाश के लिये पुखक