१० प्राचीनलिपिमाला. याकरण की मारा उसकं चौथे अंश अर्थात् मनुष्यों की ही वाणी का निर्वचन (व्याकरण) किया क्योंकि उसको ग्रह में से चतुर्थाश ही मिला था'. उपर्युक्त प्रमाणों से पाया जाता है कि उपनिषद , आरण्यक, ब्राह्मण और नैत्तिरीय संहिता के समयतक व्याकरण के होने का पता चलता है. यदि उस ममय लिग्वने का प्रचार न होता तो व्या- करण और उसके पारिभाषिक शब्दों की चर्चा भी न होती, क्योंकि जो जातियां लिम्वना नहीं जानती व छंदोबद्ध गीत और भजन अवश्य गाती हैं, कथाएं कहती हैं परंतु उनको स्वर, व्यंजन, घोष. संधि, एकवचन, बहुवचन, लिंग आदि व्याकरण पारिभाषिक शब्दों का ज्ञान सर्वथा नहीं होना. इसका प्रत्यक्ष उदाहरण हिंदुस्तान में ही भली भांति मिल सकता है,जहां ३१३४१५३८६ मनुष्यों की आयादी में से केवल १६५३६५७८ मनुष्य लिम्वना पढ़ना जानते हैं बाकी के २६४८७५८११ अभी तक लिग्यना पढ़ना नहीं जानते. उनमें किसीको भी व्याकरण के पारिभाषिक शब्दों का कुछ भी ज्ञान नहीं है. लेग्वनकला की उन्नत दशा में ही होती है और उसके लिये भाषा माहित्य टटोलना पड़ता है और उसके प्रथम रचयिता को उसके पारिभाषिक शब्द गढ़ने पड़ते हैं. भारतवर्ष की जिन असभ्य और प्राथमिक जातियों के यहां लिग्वित साहित्य नहीं है उनकी भाषाओं के व्याकरण लिम्वना जानने वाले यूरोपिअन विद्वानों ने अभी अभी बनाये हैं. ऋग्वेद में गायत्री, अपिणह, अनुष्टुभ, बृहती, विराज, त्रिष्टुभ और जगती छंदों के नाम मिलन है. वाजसनेयि मंहिता में इनके अतिरिक्त 'पंक्ति' छंद का भी नाम मिलता है और हि- पदा. त्रिपदा, चतुष्पदा, परपदा, ककुभ श्रादि छंदों के भेद भी लिम्चे हैं'. अथर्ववेद में भिन्न भिन्न स्थानों में पृथक नामों के अतिरिक्त एक स्थान पर छंदों की संख्या ११ लिम्बी है. शतपथ ब्राह्मण में मुख्य छंदों की संख्या ८ दी है'; और तैत्तिर्गय मंहिता'. मैत्रायणी मंहिता', काठक मंहिता' तथा शतपथ ब्राह्मण" में कई छंदों और उनके पादों के अक्षरों की संख्या तक गिनाई है. लिखना न जाननेवाली जानियां छंदोबद्ध गीत और भजन गाती है, और हमारे यहां की स्त्रियां, जिनमें केवल ६५ पीछे एक लिम्वना जानती है। और जिनकी स्मरणशक्ति बहुधा पुरुषों की अपेक्षा प्रबल होती हैं, विवाह आदि मांसारिक उत्सवों के प्रसंग प्रसंग के. एवं चौमामा, होली आदि न्यौहारों के गीत और बहनेर भजन, जिनमें विशेष कर ईश्वरोपासना, देवी देवताओं की स्तुति या वेदांत के उपदेश हैं, गानी हैं. यदि उनका संग्रह किया जावे तो मंभव है कि वेदों की मंहिताओं से भी उनका प्रमाण बढ़ जावे, परंतु उनको उनके छंदों के नामों का लेश मात्र भी ज्ञान नहीं होता. छंदःशास्त्र का प्रथम रचयिता ही छंदोबद्ध साहित्यममुद्र का मथ कर प्रत्येक छंद के अक्षर या मात्राओं की संख्या के अनुसार उनके वर्ग नियत कर उनके नाम अपनी तरफ से स्थिर करता है, तभी लोगों में उनकी प्रवृत्ति होती है. लिग्वना न जानने वाली जातियों में छंदों का नामज्ञान नहीं होता. वैदिक . १. शतपथ ब्रा ४१.३.१२.१५-१६ ई. स १६११ की हिन्दुस्तान की मर्दुमशुमार्ग की रिपोर्ट जिल्द ?, भाग २, पृ ७०-७१ ३ ऋग्व. सं. (१०१४१६:१०१३२.३.४). . यजु. वाज. सं (११.८.४१६, २३३३, २८१४ मादि ). अथ. सं (११९) • विराउमानि बाम (श ग्रा.८३३६). सावर प्रथम पद मागविचौलि याचा संभ गायत्री पद कादसातरा नम पिए यहादशा न भगती समपदाकरी (नै सं ६११६-७) चतुर्धा घेतल्या पहा पहा पदायिक वृती"चतुर्था लम्या नब मजारराति इत्यादि (मै सं.११९१०) माची चतुर्धारिसम्याथ पट पराधि पणिक तु रितस्यास्मन्न भन्नाचाहि । इत्यादि (का सं १४४.) हामारा जगती।४।। पद धराबासी दायरा विरार (श.प्रा.८.३.३.) इत्यादि का जगह ५ हिन्दुस्तान की ई.स १६११ की मर्दुमशुमारी की रिपोर्ट, जिल्द , भाग २, पृष्ट ७०-७१. . . १
पृष्ठ:भारतीय प्राचीन लिपिमाला.djvu/३६
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।