भारतीय संवत् चला था. इसका वर्ष ज्येष्ठ शुक्ला १३ से पलटता था और वर्तमान ही लिया जाता था. इमका प्रचार मराठों के गज्य में रहा परंतु अय यह लिम्वा नहीं जाना. २१ -बार्हस्पत्य संबम्पर ( १२ वर्ष का ) यह बार्हस्पत्य संवत्सर १२ वर्ष का चक्र है और इसका संबंध बृहस्पति की गति से है इसके वर्षों के नाम कार्तिकादि १२ महीनों के अनुमार हैं परंतु कभी कभी महीनों के नाम के पहिले 'महा लगाया जाता है जैसे कि 'महाचत्र', 'महावैशाग्व आदि. सूर्य समीप आने से बृहस्पति अस्त हो कर जय मूर्य उमसे ओंगे निकल जाता है नय ( २५ मे १ दिन के याद) जिस नक्षत्र पर फिर वह (बृहस्पति) उदय होता है उस नक्षत्र के अनुसार संवत्सर (वर्ष) का नाम मीचे लिवे क्रम में राया जाता है- कृत्तिका या रोहिणी पर उदय # तो महाकार्तिक (कार्तिक): मृगशिर या पार्टी पर महामार्गशीर्ष ( मार्गशीर्ष ); पुनर्वसु या पुष्य पर महापौष : अलेषा या मा पर माहमाव; पूर्वाफाल्गुनी, उसराफाल्गुनी या हस्त पा माफ गुनचित्रा या बात पर महाचैत्र ; विसावा या अनुराधा पर महावैशाग्य ; ज्येष्ठा या मुल पर महाज्यट; पूर्वापाडा या उत्तापाढा पर महाप्राषाढ , श्रवण या धनिष्ठा पा महाश्रावण ; शतभिषा, पूर्वाभाद्रपदा या उत्तराभाद्रपदा पा महाभाद्रपद और रंवती, अश्विनी या भरणी पर उदय हो ना महाप्राश्वयुन (प्राश्मि ) संवसर कर लाना है' में १२ वर्षों में एक मंवत्सर क्षय' हो जाता है. प्राचीन शिलालग्न और दानयत्रों में बाहस्पत्य संवत्मर दिये हुए मिलते हैं, जो मय ई म की ७ वीं शताब्दी के पर्व के हैं. उनक पीछे हम का प्रचार सामान्य व्यवहार मे उठ गया और केवल पंचांगों में वर्ष का नाम बतलाने में ही रह गया जो अब तक चला जाता है इस चक २२-बाहम्पत्य मंवत्सर। ६० वष का। यह बाहम्पत्य संवत्सर ६० वर्ष का चक्र है इसमें वर्षों की मंग्या नहीं किंतु १ मे ६० तक के नियत नाम ही लिग्वं जाने हैं मध्यम मान मे वृहस्पति के एक राशि पर रहने के समय को 'याहस्पत्य संवन्सर' (वर्ष) कहते हैं। जो ३६१ दिन, २ पड़ी और ५ पन का होता है, और सौर - नक्षत्रग सहोदयभुपगच्छति यन देवपातमन्त्रः । नमन वनय र मामक्रम गार ।। याणि क रिकाम्याशेय, द्रद्वयानुयागोनि । क्रमशस्त्रिभ तु पञ्चमभुपान्त्यमन्त्य च यम ।। ( वागही संहिता, अध्याय ८, श्लोक १-२ । ५. १२ सौर वर्षों में ११ बार गुरु अस्त होकर फिर उदय होता है इसलिय १२ वर्ष में एक बहिस्पत्य संवत्सर क्षय हो जाना है. जैसे कि पं. श्रीधर शिवलाल के वि सं १९६५ के पंचांग में वर्षनाम पाप' लिखा है परंतु १६६६ के पंवांग में 'वर्षनाम फाल्गुन' लिखा है जिससे माघ ( महामाघ ) संपत्तर क्षय हो गया . भरतपुर राज्य के कोट नामक गांव से मिले हुए शिलालेख में 'महाचैत्र' संवत्सर (रि रा म्पु अ. स. १६१६ १७.२), परिवाजक महाराज हस्तिन् के गुप्त संवत् १६२ । ई स ४८२-८३ ) के दानरत्र में महाप्राश्वयुज' संबन्सर (त्रिषष्टयुत्तरेन्दशते गुप्तनृपराज्यभुक्ती महाश्वयुजसवन्य(स)रे चैत्रमासातद्वितीयायाको गु. पृ १०२ ) और कदवशी गजा मृगेशवर्मन् के राज्यवर्ष तीसरे के दामपत्र में 'पोष' संवत्सर-श्रीमृगेगवम्मो श्रान्मनः राज्यस्य तनाये व पापे सवत्सरे कार्ति- कमासबहुम्नपसे दशम्या तियो ( ई. । जि ७. पृ. ३५) आदि.
- पं श्रीधर शिवलाल के वि.सं. १६७४ के पंचांग में वर्षनाम पाश्चिन'ओर १६७५ के पंचांग में वनाम कार्तिक'
लिखा है. ये वर्षमाम १९ बरसपाले बाईस्पत्य संवत्सर के ही है. . बृहस्पतेमध्यमराशिभोगात्संवत्सर साहितिका वदन्ति (मास्कराचार्य का सिद्धांतशिरोमणि १।३०).