१८२ प्राचीनलिपिमाला. वर्तमान चालुक्य विक्रम संवत् का अंतर ११३२ तथा ई. स. और वर्तमान चालुक्य विक्रम संवत् का अंतर १०७५-७६ आता है अर्थात् वर्तमान चालुक्य विक्रम संवत् में १०७५-७६ मिलाने से ई.स. बनता है. कुर्तकोटि से मिले हुए लेख में चालुक्य विक्रमवर्ष ७ दुंदुभि संवत्सर पौष शुक्ला ३ रवि वार उत्तरायण संक्रांति और व्यतीपात लिखा है. दक्षिणी पार्हस्पत्य गणना के अनुसार दुंदुभि संवत्सर शक सं. १००४ था; इससे भी गत शक संवत् और वर्तमान चालुक्य विक्रम संवत् का अंतर (१००४- ७ = ) ६६७ आता है जैसा कि ऊपर बतलाया गया है इस संवत् का प्रारंभ चैत्रशुक्ला १ से माना जाता है. यह संवत् अनुमान १०० वर्ष चल कर अस्त हो गया. इसका सब से पिछला लेग्व चालुक्य विक्रम संवत् ६४° का मिला है १७ --सिंह संवत् यह संवत् किसने चलाया यह अथ तक निश्चित रूप से मालूम नहीं हुमा. कर्नल जेम्स टॉड ने इसका नाम 'शिवसिंह संवत्' लिग्वा है और इसको दीव बेट ( काठियावाड़ के दक्षिण में) के गोहिलों का चलाया हुआ बतलाया है. इससे तो इस संवत् का प्रवर्तक गोहिल शिवसिंह मानना पड़ता है. भावनगर के भूतपूर्व दीवान विजयशंकर गौरीशंकर ओझा ने लिखा है कि 'श्रीसिंह का नाम पोरबंदर के एक लेख में मिल पाता है जिसमें उसको सौराष्ट्र का मंडलेश्वर लिम्वा है, परंतु पीछे से उसने अधिक प्रयल हो कर विक्रम संवत् ११७० (ई.स १११४) से अपने नाम का मंवत् चलाया हो ऐसा मालूम होता है; परंतु पोरबंदर का वह लेख अय नक प्रसिद्धि में नहीं भाया जिससे मंडलेश्वर सिंह के विषय में कुछ भी कहा नहीं जा सकता. डॉ. भगवानलाल इंद्रजी का कथन है कि संभवतः ई. स. १११३-१११४ (वि. सं ११६९-७० ) में [ चौलुक्य ] जयसिंह ( सिद्धराज ) ने सोरठ ( दक्षिणी काठियावाड़ ) के [राजा ] ग्वेगार को विजय कर अपने विजय की यादगार में यह संवत् चलाया हो. परंतु यह कथन भी स्वीकार नहीं किया जा सकता क्यों कि प्रथम नो ई. स. १११३.१४ में ही जयसिंह के चंगार को विजय करने का कोई प्रमाण नहीं है. दूसरी भापसि यह है कि यदि जयसिंह ने यह संवत् चलाया होता तो इसका नाम 'जयसिंह संवत होना चाहिये था न कि सिंह मंवत् क्यों कि संवतों के साथ उनके प्रवर्तकों के पूरे नाम ही जुड़े रहते हैं. तीसरी बात यह है कि यदि यह संवत् जयसिंह ने चलाया होना तो इसकी प्रवृत्ति के पीछे के उसके पवं उसके वंशजों के शिला- लेम्वों तथा दानपत्रों में मुख्य संवत् यही होना चाहिये था परंतु ऐसा न होना यही बतलाता है कि यह संवत् जयसिंह का चलाया हुआ नहीं है. काठिावाड़ से बाहर इस संवत् का कहीं प्रचार न होना भी यही साबित करता है कि यह संवत् काठियावाड़ के सिंह नाम के किसी राजा ने B. ... जि २२, पृ १०६ जि ६, ७-5 • कर्नल जम्स टॉड का 'ट्रैवल्स इन वेस्टर्न इंडिया', पृ ५०६ और टिप्पणी 'भावनगर प्राचीन शोध मंग्रह' भाग १, १४-५ ( गुजराती ), अंग्रेज़ी अनुवाद. पृ २-३ ५. यंब गें. जि.१, भाग १, पृ. १७६. ६. गुजगत के चौलुक्य ( सोलंकी ) राजा भीमदेव के दानपत्र में. जिसमें कच्छ मंडल ( कच्छ गम्य ) के सहसवाय गांव की कुछ भूमि दान करने का उल्लेख है, केवल संवत् १३' लिखा है जिसको उसके संपादक डॉ. फ्लीट ने सिंह संवत् अनुमान कर उक्त दानपत्र को विक्रम संवत् १२६९ या १५६३ का माना और चालुक्य भीमदेव ( दूसर ) का, जिसमे वि सं. १२३५ से १२१८ तक राज्य किया था, ठहग दिया (इ.एँ. जि.१८, पृ.१०८६). परंतु ऐसा करने में उक्त विज्ञान ने धोखा साया है क्योंकि न तो यह दानपत्र भीमदेव (दूसरे) का है और न उसका संवत् ६३ सिंह संवत् है जैसा कि माना गया है. वास्तव मे वह वानपत्र नौलुक्य (सोलंकी) भीमदेव (पहिले)का है और उसका संवत् वि. सं. १०६३ है परंतु शतामियों के अंक
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