१७५ भारतीय संवत् राज्य का उदय हुमा जिसके प्रस्त होने के पीछे वहांबालों ने गुप्त संवत् का ही नाम 'वलभी संवत्' रक्खा. अल्बेरुनी लिखता है कि 'बलभीपुर के राजा वलभ' के नाम से उसका संवत् वलभी संवत् कहलाया यह संवत् शक संवत् के २४१ वर्ष पीछे शुरू हुआ है. शक संवत् में से ६ का धन और ५ का वर्ग (२१६+ २५-२४१) घटाने से बलभी संवत् रह जाता है. गुप्तकाल के विषय में लोगों का कथन है कि गुप्त लोग दुष्ट [ और ] पराक्रमी थे और उनके नष्ट होने पर भी लोग उनका संवत् लिम्वते रहे. अनुमान होता है कि वलभ उन (गुप्तों) में से अंतिम था क्यों कि वलभी संवत् की नाई गुस संवत् का प्रारंभ भी शक काल से २४१ वर्ष पीछे होता है. श्रीहर्ष संवत् १४८८, विक्रम संवत् १०८८, शककाल ६५३ और बलभी तथा गुसकाल ७१२ ये सय परस्पर समान हैं. इससे विक्रम संवत् और गुप्तकाल का अंतर (१०८८-७१२=) ३७६ आता अर्थात् गुप्त भवन में ३७६ मिलाने से चैत्रादि विक्रम मंवत्, २४१ मिलाने से शक संवत् और ३१६-२० मिलाने मे ई. स. पाता है. गुजरात के चौलुक्य अर्जुनदेव के समय के बरावल (काठियावाड़ में ) के एक शिलालेख में रसल महंमद संवत् (हिजरी सन ) ६६९, विक्रम संवत् १३२०, वलभी संवत् ६४५ और सिंह संवत् १५१ आषाढ़ कृष्णा १३ रविवार लिम्बा है: इस लेख के अनुसार विक्रम संवत और वलभी (गुप्त) संवत् के बीच का अंतर ( १३२०-६४५= ) ३७५ प्राता है परंतु यह लेख काठियावाड़ का होने के कारण इसका विक्रम संवत् १९२० कार्तिकादि' है जो चैत्रादि १३२१ होता है जिससे चैत्रादि विक्रम संवत् और गुप्त ( वलभी) संवत् का अंतर ३७६ ही आता है जैसा कि ऊपर लिखा गया है. चैत्रादि पूर्णिमांत विक्रम संवत् और गुप्त ( वलभी ) संवत् का अंतर सर्वदा ३७६ वर्ष का और कार्तिकादि अमांत विक्रम संवत और गुप्त ( बलभी) संवत् का अंतर चैत्र शुक्ला १ से आश्विन कृष्णा अमावास्या तक ३७५ वर्ष का और कार्तिक शुक्ला : से फाल्गुन कृष्णा अमावास्या तक ३७६ वर्ष का रहता है. गुप्त संवत् का प्रारंभ चैत्र शुक्ला १ से और महीने पूर्णिमान हैं. इस संवत् के वर्ष यहुधा गत लिम्वे मिलते हैं और जहां धर्तमान लिग्वा रहता है वहां एक वर्ष अधिक रहता है. .. काठियावाड़ म गुप्त संबन के स्थान में 'यली संवन लिग्व जान का पहिला उदाहरण ऊना गांघ ( जुनागढ़ गज्य में ) से मिल हुए कन्नौज के प्रतिहार गजा मंद्रपाल के चालुक्यवंशी सामन बलवर्मन के वलभी संयत ५७४ ( ई. स ८६४) माघ शुद्ध के दानपत्र में मिलता है। एँ जि.पृ६। अल्पग्नी ने 'वल भी संवत को बलभीपुर के गजा वलभ का चलाया हुआ माना है और उक्त गजा को गुप्त वंश का अंतिम गजा बतलाया है परत ये दोनो कथन ठीक नहीं है क्योकि उक्त संवत् के साथ जुड़ा हुआ बलभी' नाम उक्त नगर का सूचक है न कि वहां के गजा का. और न गृप्त वंश का अंतिम राजा वलभ था संभव है कि गुप्त संवत् के प्रारंभ से ७०० से अधिक वर्ष पी के लेखक अलयेरुनी को ‘वलभी संवत कहलान का ठीक ठीक हाल मालूम न होने के कारण उसने ऐसा लिख दिया हो अथवा उसको लोगों ने ऐसा ही कहा हो सा.अ.जि २. पृ पली. गु: भूमिका. पृ ३०-३१ रसलमहमदमवत् ६९२ नमः श्रीनृपविक्रमस १३२० तथा श्रीमद्रलभीम १४५ नया श्रीसिंहम १५१ वर्षे आपाढवादि १३ रखी (इ.ए, जि ११, पृ २४२) .. वेरावल के उक्त लेख के विक्रम संवत् को कार्तिकादि मानने का यह भी कारण है कि उसमें लिखा हुआ हिजरी सन् ६६२ चैत्रादि विक्रम संवत् १३२० मार्गशीर्ष शुक्ला को प्रारंभ हुमा था अतएव हि स ६६२ में जो आषाढ़ मास माया वह चैत्रादि वि. सं १३२१ (कार्तिकादि १३२०) का ही था 4. खेड़ा से मिले हुए बलभी के राजा धरसेन ( चौथे ) के गुप्त संवत ३३० के दानपत्र में उक्त संवत् में मार्गशिर मास अधिक होना लिखा ( सं ३०० ३० बिमार्गशिपशु २ एं जि १५, पृ ३४०) गत गुप्त संवत् ३३० गत विक्रम संषत् ( ३३०+३७६% ) ७०६ के मुताबिक होता है गत विक्रम संवत् ७०६ में कोई अधिक मास नहीं था परंतु वि. स ७०५ में मध्यम मान से मार्गशिर मास अधिक भाता है इसलिये उक्त ताम्रपत्र का गुप्त संवत् ३३० वर्तमान (३२६ गत) होना चाहिये. V
पृष्ठ:भारतीय प्राचीन लिपिमाला.djvu/२०३
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।