प्राचीनलिपिमाला. की दूसरी शताब्दी से इधर का नहीं माना जा सकता. ऐसी दशा में यही मानना पड़ता है कि या . 'गाथामप्तति' के अंत में सातवाहन को कुंतल देश का गजा, प्रतिष्ठान ( पैठण ) नगर का अधीश, शतकर्ण ( शातकर्णि ) उपामषनाला . द्वीपिकर्ण का पुत्र, मलयवनी का पति और हालादि उपनामवाला लिखा है (प्रॉ पीटर्सन की १ स. १८८४-६ तक की रिपोर्ट पृ ३६ ) शिलालखा में आंध्र (आंध्रभृत्य ) वंश के लिये सातवाहन नाम का प्रयोग मिलता है नानाघाट के लख में उक्त वंश के मूल पुरुष सिमुक को सातवाहन कहा है और उक्लवंश के राज्य का अंत ई म. २२५ के ग्राम पास होना। स्मि: श्रहिई पृ २१८६ पास का नक्शा ) माना जाता है ऐसी दशा में गाधामप्रति का समय उक्त सन से पूर्व का ही होना चाहिये देवदन गमकृष्ण भंडारकर ने विक्रम संवत्संबंधी अपने लेख में गाथाममति के गजा विक्रम के विषय में लिखते हुए उक्त पुस्तक के रचनाकाल के संबंध में लिखा है कि 'क्या गाथामनशति वास्तव में उतमा पुराना ग्रंथ है जितना कि माना जाता है। वाण हर्षचरित के प्रारंभ के १३ वे श्लोक मे मातधारन के द्वारा गीतों के कोश के बनाये जाने का उल्लेख अवश्य है परंतु हम कोश को हान की सप्तति मानन के लिये कोई कारण नहीं है जैसा कि प्रॉ बबर ने अच्छी तरह बतलाया। उसी पुस्तक में मिलनेवाल प्रमाण उसकी रचना का समय बहुत पीछ काहाना बतलाते है यहां पर केवल दो बानी का विचार किया जाता। पकतो उस ( पुस्तक ) में कृष्ण और गधिका का (१।२८ ) श्रार सृमग मंगलवार ( ३ . ६१) का उन्नग्व है. राधिका का सब से पुगना उल्लेख जी मुझे मिल सका वह पंचतंत्र में है जो इस की पांचवीं शताब्दी का बना हुशार एस ही तिथियों का माथ या सामान्य व्यवहार में वार लिखने की गति बी शताब्दी में प्रचलित हुई, यद्यपि उमका सबसे पुराना उदाहरण बुधगुप्त के ई म ४८४ के एरण के लेख में मिलता है यदि हम गाथासप्तशनि के हाल का समय छठी शताब्दी का प्रारंभ माने तो अधिक अनुचित न होगा (पार जो भंडारकर काम्मेमोरेशन बॉल्यम पृ८-८६ ) हम उक्त विद्वान के इस कथन में सर्वथा सहमत नहीं हो सकत क्योकि बाणभट्ट मानवाहन के जिन मुभाषितरूपी उज्वलरन्नों के कोश । संग्रह खज़ाने की प्रशंसा करता है । अविनाशिनमग्राम्यमकरोत्सातवाहन । विशुद्वजानिभि काश मैत्रि मुमानित ॥ १३ । वह 'गाथाम- भशति ही है, जिसमें सुभाषित रूपी पत्नी का ही संग्रह यह कोई प्रमाण नहीं कि प्रांबरन उगाचामनति नही . माना दम लिय वह उससे भिन्न पुस्तक हाना चाहिय वन ने प्रेस ऐसी कई प्रमाणशन्य कल्पना का जो अब मानी नही जाती. प्रसिद्ध विद्वान् डॉक्टर मर ग-कृष्ण गोपाल भंडारकर न भी वेबर के उक्त कथन के विरुद्ध याणमा के उपयुक्त श्लोक का संबंध हाल की मतिम होना ही माना है। बंध गे; iज , भा २ पृ१७२ पमा ही डॉ० फीट ने (ज रॉ सो. ई म १६१६, पृ ८०० , और प्रबंधांचतामणि' के कर्ता मरतुंग ने माना है। प्रवंर्धाचतामणि. पृ २६) पांचा शताब्दी के बने हुए पंचतंत्र में कृष्ण और राधिका का उल्लव होना ना उलटा या सिद्ध करता है कि उन्म समय कृष्ण और गधिका की कथा लोगों में भलीभांति प्रसिद्ध थी अर्थात उक्त समय के पहिल से चला पानी पी र्याद एसा न होता तो पंचतंत्र का वर्ना उसका उल्लख ही कम करता एम तिथियः क. माथ या सामान्य व्यवहार में वार लिखने की रीनि काधी शताब्दी में प्रचलित होना बतलाना भी ठीक नही है। माना. क्या कि कच्छ गज्य के अंधी गांव से मिल हुए क्षत्रप रुद्रदामन के समय के शक मंचन - ई म १३० के ४ लम्बा में से एक लग्न में गुरुवार लिखा है। विपचाशे ५० फागम चल्तम हिनाया । चामर सिलपुत्र प्राप्गत गारम० म्वगीय आचार्य वल्लभजी हरिदस की तग्यार की हुई उक्त लंख की छाग म। जिससे सिद्ध है कि ई म की दूसरी शताब्दी में चार लिखने की गति परंपगगन प्रचलित थी गधिका और बुधवार के उल्नग्य से ही गाथासप्तशनि का छठी शनादी में बनना किसी प्रकार सिद्ध नहीं हो सकता डॉ सर रामकृष्ण गोपाल भंडारकर ने भी गाथामप्नात कर्ता हाल को आंध्रभृत्य वंश के गजात्रा में में धक माना है ! बंब गॅ. जि १, भा २. पृ १७ , जिसमें भी उसका अांध्रभृत्य । सातवाहन ) वंशियो के राजत्वकाल मे अर्थात म की पहिली या दुसर्ग शताब्दी में बनना मानना पड़ता है केवल गाशासमशनि' से ही चंद्रगुप्र । दुर्मर । से पूर्व के राजा विक्रम का पता लगना इतना ही नहीं किंतु गजा सातवाहन हाल , के समय के महाकवि गुग्णान्य रचित पैशाची ( कश्मीर त फ की प्रारत ) भाषा के वृकथा नामक ग्रंथ से भी जिसकी प्रशंसा याणभट्ट ने अपने प्रपंच रन के प्रारंभ के १७ चे श्लोक ( ममुद्दीपितकदी कृतगौरीप्रमा-बना । हग्लालव नो कम्य विस्मयाय बृहत्कया ) में की है यह पुस्तक अब तक नहीं मिला परंतु उसके संस्कृत अनुवाद रूपी मामदेव भट्ट के कथा- सरिमागर में उज्जैन के गजा विक्रर्मासह ( लंबक । तरंग १ ). पाटलीपुत्र के गजा विक्रमतुंग (लंबक ७, तरंग १) आदि विक्रम नाम के राजाओं की कई कथाएं मिलती है इस पुस्तक को भी बयर में ई. स. की छठी शताब्दी का माना है परंतु डॉ सर रामकृष्ण गोपाल भंडारकर ने उपर्युक्त सातवाहन के समय का अर्थात ई स की पहिली या दूम शताब्दी का माना है । यथ गं. जि १ भा २, पृ १७०-७१ ) और काव्यमाला के विद्वान मंपादक स्वर्गीय महामहोपाध्याय पं दुर्गाप्रसाद और पांडुरंग परब ने उसकाई म. की पहिली शताब्दी में बनना यतलाया है इतना ही नही किंतु वेयर के मान हुए उसके समय के विषय में लिखा है कि येवर पंडित हिस्टरी ऑव संस्कृत लिटरेचर' नामक पुस्तक में गुणाढय का ई स की छठी शताब्दी में होना यतलाता है और दशकुमारचरिन के रचयिता प्राचार्य दंडी का भी छठी शतादी में होना स्वीकार परता किनु प्राचार्य दंडी काव्यदर्श में 'भृतभापामयी प्राहुरद्भुताथा बृहत्कथाम' में 'प्राहुः पद से वृहत्कथा का अपने से बहुत
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