१६७ 9 भारतीय संवत् (३) इसकी मासपक्षयुत तिथिगणना भी 'मालवपूर्वा', अर्थात् मालवे (पा मालवों) की गणमा के अनुसार की, कहलाती थी. जयपुर राज्य के नगर (कर्कोटक नगर ) से कुछ सिके ऐसे मिले हैं जिन पर 'मालवान(नां) जय(यः) लेग्व होना बतलाया जाता है. उनकी लिपि ई स. पूर्व २५० से लगा कर ई. स. २५० के बीच की अर्थात् विक्रम संवत् के प्रारंभ के आस पास की मानी गई है. इन सिक्कों से अनुमान होता है कि मालव जाति के लोगों ने जय प्राप्त करके उसकी यादगार में ये सिके चलाये हों. ममुद्रगुप्त ने मालव जाति को अपने अधीन किया था. इससे भी यह अनुमान होता है कि मालवों का उपर्युक्त विजय गुप्तों से पूर्व ही हुआ था. यह भी संभव है कि मालव जाति के लोगों ने अवंति देश को जीत कर अपना राज्य वहां जमाया हो और उसीसे वह देश पीछे से मालव (मालवा) कहलाया हो एवं वहां पर मालव जाति का राज्य स्थिर होने के समय से प्रचलित होने के कारण यह संवत् 'मालवकाल' या 'मालव संवत्' कहलाया हो. कुछ विद्वानों का मत यह है कि इस संवत् का नाम वास्तव में 'मालव संवत्' ही था परंतु पीछे से गुप्त वंश के राजा चंद्रगुप्त (इमरे) का, जिसके विरुद 'विक्रम' और 'विक्रमादित्य' आदि मिलते हैं, नाम इस संवत् के साथ जुड़ जाने मे इसका नाम 'विक्रम संवत् हो गया हो. यह कल्पना तभी ठीक कही जा मकती है जथ इतिहास से यह सिद्ध हो जावे कि चंद्रगुप्त (दूसरे) के पहिले विक्रम नाम का कोई प्रसिद्ध राजा नहीं हुआ, परंतु हाल (सातवाहन, शालिवाहन) की 'गाथासप्तशनि' से यह पाया जाता है कि उस पुस्तक के संगृहीन होने के पूर्व विक्रम नामका प्रमिद राजा हुआ था. हाल का समय ई. स. . ( . में ४ का भाग देने से ४ यने ( अर्थात् कुछ न बचे । उसका नाम कृत. ३ बच उसका ना, २ व उसका द्वापर और १ बसे उसका कलि है यह युगमान जिन ४ लेखों में कन' मंशा का प्रयोग हुआ है नीचे लिव अनुमार ठीक घट जाता है । १) विजयमंदिरगढ़ ( वयाना । के लख के वर्ष ५०८ [ का गत : मान कर ४ का भाग देने से कुछ नहीं बचता इससे उसका नाम 'कृत हुश्रा ( . । मंदसौर के वर्ष ४६१ को वर्तमान ( 'प्राप्त' ) कहा ही है इस लिये गत वर्ष ४६० है जो 'कृत' ही है । ३ । गंगधार । झालावाड़ राज्य में ) के लग्ब क वर्ष ४० को गन ही लिखा है जिसमे यह कृत' ही है ( ४ । नगर्ग के लेख के वर्ष ४८१ को वर्तमान माने तो गन ४० होता है जो कृत ही है ऐसी दशा में यह कहा जा सकता है कि मालवा और गजपूतान में कनादि युगगणना की प्राचीन शनी का प्रचार स की पांचवी शताब्दी के पूर्वार्द्ध तक बना हुआ था संभव है कि मालव की गणना चैत्रादि पूर्णिमांत हो. कः श्रा स रि, जि ६, पृ १८२. प्ली. गु ई.पू. चंद्रगुप्त ( दुसरे ) के मिकों पर एक तरफ़ उम गजा के नामघाले लेख और दूसरी और 'श्रीविक्रमः . 'विक- मादित्यः', सिंहविक्रमः', 'अजितविक्रमः आदि उसीके विरुदसूचक लेख है (जॉन पैलन संपादित, गुमो के सिमां की मूचि) . मवाहगामुहरमतोसिएग देन्तेगा तुर कर लम्व । चलगोगा विकमाइचचरिअमामिश्विन तिम्सा (गाथा ४६४, वेबर का संस्करण। इस गाथा में विक्रमादित्य की दानशीलता की प्रशंमा है &
- कार्यगा भने जुम्मा परागात्ता ? गोयम चत्तारि जुम्मा पगगाना । त जसा । कयजुम्म तयोंजे दावरजुम्म कलिनुगे । से केशान्येगा
भते । एव उच्चयि आव कलिनुगे गोयम । जेगा गसी चयुक्केगा अवहाग्गा अवहरिमाणे चयूपज्जवमिये से न कयजुम्मे । जेगां रामा चयुक्तगण अवहारेगा अबरिमागणे निपज्जवसिये मे त योजे । जेणं गसी चयुक्केण अवहारेगा अवहरिमाणे दुपज्जवमिये मे त दावरजुम्मे । जेग रामी चयुक्किण अबहारेगा श्रवहरिमागणे एकपज्जवसिये से त कलिनुगे । से तंगत्येगा गोयम (१३७१-७२, भगवती सूत्र ‘गवामयन'. पृ ७२). | कृतेषु चतृषु वर्षशतेष्वष्टाविंशेषु ४०० २०८ फाल्गुण(न)बहुलस्य पञ्चदश्श्यामेनस्या पूर्वाया (ली, गु . पृ २५७)
- शिलालेखादि में विक्रम संवत् के वर्ष बहुधा गत लिखे जाते हैं। एँ । जि १, पृ. ४०६ ) वर्तमान बहुत कम. जब
कभी वर्तमान वर्ष लिखा जाता है तब एक वर्ष अधिक लिखा रहता है यातेषु चतुर्पु क्रि(क)तेषु शतेषु सौस्यै(म्यै)वा(या)शीतसोनरपदेविह वत्मरिषु] । शुक्ल त्रयोदशदिने भुवि कार्तिकस्य मासस्य सर्व- मनचित्तसुखावहस्य ।। (क्ली: गु. पू.७४).