पृष्ठ:भारतीय प्राचीन लिपिमाला.djvu/१८

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

भूमिका. के प्रारंभ के लेखों को न समझ सकें, तो भी लिपिपत्रों की सहायता से ये प्राचीन लिपियों का पड़ना सीख सकते हैं. दसरा कारण यह है कि हिंदी साहित्य में अय तक प्राचीन शोधसंबंधी माहित्य का अभाव सा ही है. यदि इम पुस्तक से उक्त अभाव के एक अणुमात्र अंश की भी पूर्ति हुई तो मुझ मे हिंदी के तुच्छ सेवक के लिये विशेष आनंद की बात होगी. इस पुस्तक का क्रम ऐमा रम्बा गया है कि ई स. की चौथी शताब्दी के मध्य के आसपास तक की मरत भारतवर्ष की लिपियों की संज्ञा ब्राही रकवा है. उसके बाद लेग्बनप्रवाह स्पष्ट रूप से दो स्रोतों में विभक्त होता है, जिनके नाम ‘उत्तरी' और 'दक्षिणी' रकाने हैं. उरुरी शैली में गुप्त, कुटिल, नागरी, शारदा और बंगला लिपियों का ममावेश होता है और दक्षिणी में पश्चिमी, मध्यप्रदशी, तेलुगु-कनड़ी, अथ. कलिंग और तामिळ लिपियां हैं. इन्हीं मुख्य लिपियों से भारतवर्ष की समस्त वर्तमान (उर्द के अतिरिक्त) लिपियां निकली हैं. अंत में खरोष्ठी लिपि दी गई है. १ से ७० तक के लिपिपत्रों के बनाने में क्रम ऐमा रक्ग्वा गया है कि प्रथम स्वर, फिर व्यंजन, उसके पीछे क्रम से हलंत व्यंजन, स्वरमिलिन व्यंजन, संयुक्त व्यंजन, जिहवामलीय और उपध्मानीय के चिही सहित व्यंजन और अंत में 'ओं का मांकेतिक चिक (यदि हो तो) दिया गया है. १से ५६ नक और ६५ से ७० तक के लिपिपत्रों में से प्रत्येक के अंत में अभ्यास के लिये कुछ पंक्तियां मृल लेस्वादि से उद्धृत की गई हैं. उनमें शब्द ममामों के अनुमार अलग अलग इस विचार से रक्खे गये है कि विद्यार्थियों को उनके पढ़ने में मुभीता हो उक्त पंक्तियों का नागरी अक्षरांनर भी पंक्ति क्रम से प्रत्येक लिपिपत्र के वर्णन के अंत में दे दिया है जिसमे पढ़नेवालों को उन पंक्तियों के पढ़ने में कहीं संदेह रह जाय तो उसका निराकरण हो मकंगा. उन पंक्तियों में जहां कोई अक्षर अस्पष्ट है अथवा छूट गया है अक्षरांतर में उसको । चिक के भीतर, और जहां कोई अशुद्धि है उमका शुद्ध रूप ( चिक के भीतर लिग्वा है जहां मृल का कोई अंश जाता रहा है वहां... गमी बिंदियां बनादी हैं जहां कहीं 'श' और 'डह' मंयुक्त व्यंजन मूल में संयुक्त लिग्वे हुए है वहां उनके मंयुक टाइप न होने मे प्रथम अक्षर को हलंत रग्बना पड़ा है परंतु उनके नीच भाड़ी लकीर पहुधा रग्ब दी गई है जिससे पाठकों को मालूम हो मकेगा कि मूल में ये अक्षर एक दमरे मे मिला कर लिग्वे गये हैं मुझे पूरा विश्वास है कि उस लिपिपत्रों के अंत में दी हुई मूल पंक्तियों को पढ़ वाले को कोई भी अन्य लेख पढ़ लेने में कटिनता न होगी लिपिपन्न ६० मे ६४ में मूल पंक्तियां नहीं दी गई जिसका कारण यह है कि उनमे तामिळ तथा वहन्दुत्तु लिपियां दी गई है. वर्णों की कमी के कारण उन हिपियों में संस्कृत भाषा लिखी नहीं जा सकती, वे केवल तामिळ ही में काम दे सकती है और उनको तामिळ भाषा जाननेवाले ही ममझ सकते हैं, नी भी बहुधा प्रत्येक शताब्दी के लेग्वादि से उनकी विरहत वर्णमालाएं बना दी हैं, जिनसे तामिळ जाननेवालों को उन लिपियों के लेम्वादि के पढ़ने में सहायता मिल सकेगी. लिपिपत्रों में दिये हुए अक्षरों तथा अंकों का ममय निर्णय करने में जिन लेखादि में निश्चित संवत् मिले उनके तो वे ही संवत् दिये गये हैं, परंतु जिनमें कोई निश्चित संवत् नहीं है उनका सम्म पशुधा हिपियों के आधार पर ही या अन्य माधनों से लिया गया है जिसमें उसमें अंतर होना संभव क्योंकि किसी लेम्व या दान पत्र में निश्चित संवत् न होने की दशा में केवल उसकी लिपि के आधार पर ही उसका समय स्थिर करने का मार्ग निष्कंटक नहीं है. उसमें पचीस पचास ही नहीं किंतु कभी कभी तो सौ दो मो या उससे भी अधिक वर्षों की चूक हो जाना संभव है ऐसा मैं अपने अनुभव से कर सकता हूं