प्राचीक्षिपिमा पूरा लिखना. (मा) बसरों पर सिर की माड़ी सकीर लगाना. (१) कलम को उठाये बिना अक्षर को (६) त्वरा से लिखना. लिपिपत्र ८२ से ८४ के उत्तरार्ध के प्रथम खंड तक में भारतवर्ष की ६ मुख्य लिपियों का विकासक्रम बतलाया गया है जिसमें प्रत्येक अचर के जो रूपांतर दिये हैं उनमें से अधिकतर लिपिपत्र १ से १४ तक से ही लिये गये हैं. लिपिपत्र ८२ यां. इस लिपिपत्र में वर्तमान नागरी और शारदा (करमीरी) लिपियों की उत्पति बतलाई गई है. नागरी लिपि की उत्पत्ति नागरी भादि जितनी लिपियों की उत्पत्ति लिपिपत्र ८२ से ८४ में दी है उनमें पहिले वर्तमान लिपि का प्रत्येक अक्षर दे कर उसके बाद = चिम दिया है. उसके पीछे अशोक के ममप में लगा कर वर्तमान रूप बनने तक के सब रूपांतर दिये हैं. प्रत्येक रूप अनेक लेखादि में मिलता है और प्रत्येक लेखादि का पता देने से विस्तार बहुत बढ़ जाता है अतएव केवल एक स्थल का पता दिया जाएगा. भ-इमका पहिला रूप अशोक के गिरनार के पास के चटान के लेम्व (लिपिपत्र १)से लिया गया है (बहुधा प्रत्येक लिपि के प्रत्येक अक्षर का पहिला रूप उसी लेग्व से लिया गया है इस लिये आगे पहिले रूप का विवेचन केवल वहीं किया जायगा जहां वह रूप किसी दूसरे स्थल से लिया गया है ). दूसरा रूप मथुरा के लेखों (लिपिपत्र ६) से लिया है जिसमें 'अ' की बाई ओर के नीचे के अंश में दो बार कोण बनाये हैं. तीसरा रूप कोटा के लेख (लिपि पत्र २१) से है जिसमें 'म' की बाई ओर के नीचे के अंश को अर्द्धवृत्त का सा रूप देकर मृल अक्षर से उसे विलग कर दिया है. बीया रूप देवल के लेख (लिपिपत्र २५) से और पांचवां चीरवा के लेख (लिपिपत्र २७) से लिया गया है. छठा रूप वर्तमान नागरी है. (लिपिपत्र ८२ मे ८४ तक में प्रत्येक अक्षर की उत्पत्ति में अंतिम रूप वर्तमान अक्षर ही है इसलिये उसका भी आगे विवेचन न किया जायगा). इस प्रकार प्रत्येक अक्षर की उत्पत्ति का विवेचन करने से विस्तार बढ़ जाता है इस लिये मागे 'पहिला रूप', 'दूसरा रूप' आदि के लिये केवल उनकी संख्या के पहिले अक्षर 'प', 'द' भादि लिखे जायंगे और उनके आगे जिस लिपिपत्र या लेग्ब से वह रूप लिया है उसका अंक या नाम मात्र दिया जायगा और जहां बहुत ही आवश्यकता होगी वहीं विवेचन किया जागा प्रत्येक रूप में क्या अंतर पड़ा यह उल रूपों को परस्पर मिला कर देग्वने से पाठकों को मालूम हो जायगा. अ-म' का यह रूप दक्षिण में लिखा जाता है. इसके पहिले तीन रूप पूर्व के 'म' के समान है; चौ. १८ (इसमें बाई भोर का नीचे का अर्धवृस सा अंश मूल अदर से मिल गया है); पां.चौथे का रूपांतर ही है. इ-द. १७ ( जयनाथ का दानपत्र-इसमें ऊपर की हिंदी के स्थान में सिर की माड़ी लकीर, और नीचे की दोनों पिंदियों को भीतर से ग्वाली बनाया है); ती २६ ; चौ. २७; पा. चौथे के समान
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