१२४ प्राचीनलिपिमाला. ऊपर वर्णन की हुई अक्षरों से अंक सूचित करने की शैलियों के अतिरिक्त दक्षिण में मलबार और तेलुगु प्रदेश में पुस्तकों के पत्रांक लिग्वने में एक और भी शैली प्रचलित थी जिसमें 'क'सेल' तक के अक्षरों से क्रमशः १ से ३४ तक के अंक, फिर 'बारखड़ी' (द्वादशाक्षरी) के क्रम से 'का' से 'ळा' तक 'श्रा' की मात्रासहित व्यंजनों से क्रमशः ३५ से १८ तक, जिसके बाद 'कि' से 'ळि' तक के 'इ' की मात्रासहिन व्यंजनों से ६९ से १०२ तक के और उनके पीछे के अंक 'ई', 'उ' आदि स्वरसहित व्यंजनों से प्रकट किये जाते थे। यह शैली शिलालेग्व और ताम्रपत्रादि में नहीं मिलती. अक्षरों से अंक प्रकट करने की रीति आर्यभट (प्रथम) ने ही प्रचलित की हो ऐसा नहीं है क्योंकि उससे बहुत पूर्व भी उसके प्रचार का कुछ कुछ पता लगता है पाणिनि के सूत्र १.३.११ पर के कात्यायन के वार्तिक और कैयट के दिये हुए उमके उदाहरण से पाया जाता है कि पाणिनि की अष्टाध्यायी में अधिकार 'स्वरित' नामक वर्णात्मक चिजों से यतलाये गये थे और वे वर्ण पाणिनि के शिवसूत्रों के वर्णक्रम के अनुसार क्रमशः सूत्रों की संख्या प्रकट करते थे अर्थात् अ=१; इ-२; उ-३ आदि लिपिपत्र ७वां इस लिपिपत्र में दो खंड हैं, जिनमें से पहिले में अशोक के लेग्वों ', नानाघाट के लेख , कुशन- वंशियों के समय के मथुरा श्रादि के लेग्वों, क्षत्रप और अांध्रवंशियों के समय के नामिक आदि के लेखों, क्षत्रपों के सिकों , तथा जग्गयपेट के लग्बों एवं शिवस्कंदवर्मन् और जयवर्मन् के दानपत्रों से १ से ६ तक मिलनेवाले प्राचीन शैली के अंक उद्धृन किये हैं. दुसरे खंड में गुप्तों तथा उन- के समकालीन परिव्राजक और उच्छुकल्प के महाराजाओं आदि के लेग्व व दानपत्रों, वाकाटक", पल्लव तथा शालकायन वंशियों एवं वलभी के राजाओं के दानपत्रों, तथा नेपाल के शिलालेखों से वे ही अंक उद्धृत किये गये हैं. १. ब, सा.इ. पे; पृ ८० वमो के कुछ हस्तलिखित पुस्तकों के पत्रांकों में क स 'क' तक से १ से १२ तक, 'ख' से 'खः' तक से १० स २४ 'ग' से ग 'नक से २५ से ३६ इत्यादि बारखड़ी के क्रम से अंक बतलाय है मीलोन ( संका) के पुस्तकों के ऐसे ही पत्रांकों में ऋ ऋ. ल और लू स्वरहिन व्यंजनों में भी अंक बतलाय हुए मिलते हैं जिसमें उनमें 'क' से 'का' तक से क्रमशः १ से १६, 'ख' से 'खः' तक स १७ से ३२ श्रादि अंक बनलाये जाते है और जब सब व्यंजन समाप्त हो जाते है नब फिर २ क', '२ का' आदि से प्राग के अंक सचिन किये जाते हैं (बू पं. पृ८७) २. देखो, ऊपर पृ. ७ टिप्पण ५ और वेलि.पृ २२२ .. .जि २, पृ. ४६० के पास का संट. ए जि २२.२६ के पास का संट लिपिपत्र ७१ से ७६ तक में जो अंक दिये गये है ये बहुधा भिन्न भिन्न पुस्तकों में छपी हुई लेखादि की प्रतिकृतियों से लिये गय ह इम लिये भागे उक्त लिपि- पत्रों के टिप्पणा में हम बहुधा पत्रांक देंगे, जिससे पाठक उसके पास या उनके बीच के लेट समझ लवे ४. प्राम.वे .जि.५, सेट ५१. ५. ऍजि १, पृ. ३८८-१३, जि. २. पृ. २००-२०६ . ३६८, जि १०, पृ १०७. एँ; जि ३७, पृ. ६६. ५. मा. स घे.जि. प्लेट ५२-५५. जि.८, पृ ६०६० (प्लट १-८) • बांसवाड़ा राज्य ( राजपूताना ) के सिरयाणिना गांव से मिले हुए पश्चिमी क्षत्रों के २४०० सिको, राजपूताना म्यूजियम (अजमेर) में रक्ख हुए १०० से अधिक सिक्कों से, तथा रा; के कॉ आक्ष; प्लट ६.१७ ८. पा स स.जि. १, प्लेट ६२-३. ' जि १, पृ. ६; जि ६, पृ ८४-८, ३१६-१. .. फ्ली, गु: प्लेट १-४, ६, १२, १५, १६, ३६, ३८, ३६, ४१ जि., पृ ३४४. १. पली; गु., पोट २६, ३४. ११. पं. जि ८, पृ. १६१, २३५, जि., पृ. ५६..एँ: जि ५, पृ. ५०-५२; १४४-४६, १७६-७७. १२. ए. जि. ३, पृ. ३२१: जि ८ पृ. १९३, जि. ११, पृ. ८३, १०६-१६, १७६. पली; गु. प्लेट २४-२५ .. बि५, पृ. २०७-८, जि. ६. पृ. १४-१; जि. ७, पृ.६६-७८. प्रा. स.रि. स. १६०२-३, पृ. २३५, ज.ब.ए. सो; जि. ११, १२..जि.पृ. १६४-७८.
पृष्ठ:भारतीय प्राचीन लिपिमाला.djvu/१५२
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।