पृष्ठ:भारतीय प्राचीन लिपिमाला.djvu/१४९

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. अंक. १२१ इस प्रकार शब्दों से अंक बतलाने की शैली बहुत प्राचीन है. वैदिक साहित्य में भी कभी कभी इस प्रकार से अंक बतलाने के उदाहरण मिल आते हैं जैसे कि शतपथ' और नैसिरीय' ब्राह्मणों में ४ के लिये कृत' शब्द, कात्यायन और लाव्यायन श्रौतसूत्रों में २४ के लिये 'गायत्री' और ४८ के लिये 'जगती और वेदांग ज्योतिष में १. १, ८, १२ और २७ के लिये क्रमश: 'रूप', 'अय', 'गुण', 'युग' और ' भसमूह' शब्दों का प्रयोग मिलता है'. पिंगल के छंदःसूत्र में तो कई जगह अंक इस तरह दिये हुए हैं 'मूलपुलिशमिद्धांत' • में भी इस प्रकार के अंक होना पाया जाता है. वराहमिहिर की 'पंचमिद्धांतिका (ई. स. ५०५), ब्रह्मगुप्त के 'ब्रह्म- स्फुटसिद्धांत' (ई स.६२८), लल्ल के शिष्यधीवृद्धिद' (ई. म ६३८ के आम पास) में मथा ई म की सातवीं शताब्दी के पीछे के ज्योतिष के आचार्यों के ग्रंथों में हजारों स्थानों पर शब्दों से अंक बनलाये हुप मिलते हैं और अय तक संस्कृत, हिंदी, गुजराती आदि भाषाओं के कवि कभी कभी अपने ग्रंथों की रचना का मंवत् इसी शैली से देते हैं प्राचीन शिलालेग्वों तथा नाम्रपत्रों में भी कभी कभी इस शैली मे दिये हुए अंक मिल आते हैं. मि के ने 'भारतीय गणितशास्त्र' नामक अपने पुस्तक में लिखा है कि 'शब्दों से अंक प्रकट करने की शैली, जो अमाधारण रूप में लोकप्रिय हो गई और अब नक प्रचलित है, ई. म. की नवीं शताब्दी के आसपाम संभवतः पूर्व की ओर मे [ इस देश में ] प्रवृत्त हुई' (पृ. ३१). मि. के का यह कथन भी सर्वथा विश्वास योग्य नहीं है क्योंकि वैदिक काल से लगा कर ई. स. की मानवीं शताब्दी तक के संस्कृत पुस्तकों में भी हम रोली मे दिये हुए अंकों के हजारों उदाहरण मिलते हैं. यदि मि. के ने वराहमिहिर की पंचमिद्धांनिका को ही पड़ा होता तो भी इस शैली के असंख्य उदाहरण मिल आते. अक्षगे म अंक यनलान की भारतीय शैली ज्योतिष आदि के श्लोकबद्ध ग्रंथों में प्रत्येक अंक के लिये एक एक शब्द लिखने में विस्तार बढ़ जाता था जिमको मंक्षेप करने के लिये अक्षरों मे अंक प्रकट करने की गतियां निकाली गई उपलब्ध ज्योतिष के ग्रंथों में पहिले पहिल इस शैली में दिये हुए अंक आर्यभट (प्रथम) के 'आर्यभटीय (आर्यसिद्धांन ) में मिलते हैं जिमकी रचना ई. म १६६१ में हुई थी. उक्त पुस्तक में अक्षरों मे अंक नीचे लिग्व अनुसार बतलाये हैं चतुझीमन कलम अयाना (श ग्रा:१३ ३२६) यं वचत्वार मामा कृत सत (तं ब्रा: १. ११२). दक्षिणा मायामम्पन्न प्राणम्य २१ ॥ इम पर टीका गायत्री मम्प चा गाथा ग्यतरममानभायातुर्विमनिर्गा को दक्षिण।। जम त्या राज ॥९० ॥ इस पर टीका -जगन्या भम्पमा राज सहपक्ष प्रानदक्षिश । जगत्यक्षरसमान माय। पाचन्दारिहायो भन्न (का श्री मवेबर का संस्करण:पृ१०१५) मायामपना दक्षिणा मानणा दगात जगनामपना रजा (ला धा सूः प्रपाठक : कंडिका ४, सूत्र ३१) इस पर टीका-गायत्रीमपचतुर्विति ।। । जगमीपता पाचवारिस । रूपाम पडामोहरम (याजुष. २३; आर्च, ३१) हिमश चायभपतन ( याजुष, १३, आर्च, ४), अविष्टायो यहाभ्यसक (मार्च, १६) अगसळप सपर्व स्याम ( याजुष, २५) भिव्य भमसरन (याजुष, २० ). १ भमदत्तुंम्ब (मंदाक्रांता की यति ). शादित्यप ( शार्दूलविक्रीडित की यति) सरपिरमा (सुवदना की यति ). मानसपथ ( भुजंगविजूंभित की यति )-पिंगलछंदःसूत्र • देखो, ऊपर पृ ११६ दि.७ ८, देखो. ऊपर पृ.११६ टि *. - देखो. ऊपर पृ १९७टि. १०. देखो, ऊपर पृ ११७ टि +. १९ बमबाबरी वर्षा गलक कालस्य विक्रमास्था ( धौलपुर से मिले हुए चाहमान चंडमहासेन के पि सं. १८ के शिक्षाब से (.जि १४, पृ ४४). १९ गिरिरमवसाचाठी शकसमये (पूर्वी चालुक्य अम्म दूसरे के समय के श सं.८६७ के दानपत्रसे; .जि ७. पृ.१६). १६ सुगत, पृ. २. १० पचराचि मावोवर्मापरावि कान भीहिमवर्क परामब कोऽवो भवाग्यको बा । (मार्यमटीय, भार्या १) ~ ७