अंक शून्य की योजना कर नव अंकों से गणिन शास्त्र को सरल करनेवाले नवीन शैली के अंकों का प्रचार पहिलेपहिल किस विद्वान ने किया इसका कुछ भी पता नहीं चलता. केवल यही पाया जाता है कि नवीन शैली के अंकों की सृष्टि भारतवर्ष में हुई. फिर यहां से अरबों ने यह क्रम सीम्बा और अरबों मे उसका प्रवेश यूरोप में हुआ, जिमके पहिले चाल्डिन् , हिब्रू, ग्रीक, अरब आदि एशिया और यूरोप की जातियां वर्णमाला के अवरों' से अंकों का काम लेती थी. अरयों के यहां ग्वलित बलीद के ममय (इ. स. ७०५-७१५ ) तक अंकों का प्रचार न था जिसके बाद उन्होंने भारतवासियों में अंक लिय इस विषय में 'एन्साइक्लोपीडिआ ब्रिटॅनिका' नामक महान् अंग्रेजी विश्वकोश में लिखा है कि 'यह सर्वथा निःमंशय है कि हमारे (अंग्रेजी) वर्तमान दशगुणोत्तर अंकक्रम की उत्पत्ति "भारतीय है. संभवतः ग्वगोलसंबंधी उन सारणियों के माथ, जिनको एक भारतीय राजदूत ई म ७७३ में बगदाद में लाया था, भारतवामियों मे उसका प्रवेश अरबी में हुआ वस्तुतः और मानवीं शताब्दी के लल्ल । तथा ब्रह्मगुप्त । के ग्रंथों में मकड़ी जगह नवीन शैली में दिय हुए अंक मिलते हैं जिनको देख बिना ही यह मनमानी कल्पना की गई है प्राचीन लेख और दानपत्रों में यद्यपि अंक विशेष कर शब्दों में दिये जाते है तो भी ई म की छठी शताब्दी के प्रत काम पाम मे कही नवीन शैली में दिये हुए भी मिलत है मि के ने इ. म ५६० म लगा कर ८८२ तक के १६ लाखों की सूची भरने उक्त लाख में दो है जिनमें अंक नवीन शली से दिये हुए है परंतु उनमें से प्रत्यक के अंकों में कुछ न कुछ दूषण लग का एक का मो ठोक दाना स्वं कार नहीं किया (पृ ४८२८६ ) जिसका कारण यही है कि ये लाव उक्त कपन के विरुद्ध १०ी शताब्दी म सहन पूर्व कल वा भी नर्व'न शैली के अंको का प्रचार होमा सिद्ध करते है. कोई काई ताम्रपत्र जाला मी बन दान ह क्याकि उन भूमि का अधिकार रहना है परंतु शिलालेखों का बहुधा भूमि मे संबंध होना ही नहीं इस लिये उनको कृत्रिम बनान की आवश्यकता ही नहीं रहती शेरगढ़ ( कोटाराज्य में ) के दरवाजे के पास की नियारी की मीडिया क पान एक नाक में ला दुप सामंत देवदत्त के वि सं ८४७ ( स ७.१) लेख को मने देखा है उसमें नवीन शनी क मंवत् के अंक बहुत स्पट ह डॉ.लाट ने उस संवत् के अंश की प्रतिकृति छापी है ( पं. जि १५. पृ ३५१ ) जिमम भी पर 6 अंक सटह। डॉ मनोरने ८७६ पड़ा है वह अशुद्ध है). प्रतिहार नागभट के समय के बुचकला ( जोधपुर गज्य में ) के वि सं.८७२(ईस १५ । के शिना- लेख के संवन के अंक (एँ .जि ६, पृ २०० के पान का लर), माने पाल भिन दुर प्रानदार मजदव क मलय के ई म ८७० के आस पास के शिला लख के । जिसमें संवत् नहीं दिया ) । म २६ तक श्नांकाक ( श्रा म. म १६०३ ४, प्लेट ७२ ) और वहीं मे मिल हुए उमी गजा के समय के वि मं ६३३ ( इ म ८७७) क शिलाल ख में दिये हुए ३३३, १८७ र ५० के अंक सब के सब नवीन शैली से ही है (पंई जि१. पृ १६० के पास का लेट ) इन सब लखों की उत्तम प्रतिकृनियां छपी है. उनमे दिये हुए अंकों को कोई विद्वान् मंशययुक्त नहीं कह सकता .मी दशा में मि के की उपयुक • पूर्ण मत्यना" में वास्तविक सत्यता का अंश कितना है इसक. पाठक लोग म्वयं विचार कर सकंग 1. पहिले अक्षरों से १ से १ तक के अंक, उनके बाद कहता में १० मे १० तक की दवाइया के अंक मार बाकी के अक्षरों में १००, २०० आदि के अंक बतलाये जात ये जब वर्णमाला क अक्षर पुर दी जान तय फिर उन्टीक ऊपर चिक लगा कर १००० तक सूचित करने के लिय उनका काम में लाने पे. ग्रीक लोगों में 1०००० तक के लिये अक्षर संकत थे परंतु गेमन लोगों मे १००० तक के ही रोमन अतर्गस अंक लिवन का प्रचार अब तक यूरोप में कुछ कुछ बना हुआ है और बहुधा घड़ियों में घंटा के अंकों और पुस्तकों में कभी कभी मन के अंक तथा प्लटों की संख्या आदि में उसका व्यवहार होता है. अरबों में भारतीय अंक ग्रहण करने के पहले अक्षरों में ही अंक बतलाये जाने थे जिसको 'प्रबजद (हि वर्णमाला के पहिले ४ अक्षरों के उच्चारणा-अ.ब, ज और दसे ) कहत है उन्होंने यह अक्षरसंकन ग्रीकों से सीखा अरबी से फ़ारसी में उसका प्रयोग होने लगा और हिंदुस्तान के मुमल्मानो के समय के फ़ारसी लेखो तथा पुस्तकों में कभी कभी अंकसूखक अक्षरों से शब्द बना कर सन् का अंक बतलाया हुश्रा मिलता है, जैस कि 'वनात् फीरोज़ ( फीरोज का देहांत )=हिजरी सन् ७६०; 'मसजिद जामिउल् शर्क-हिजरी सन् ८५२ आदि (क. ई. पृ २२६ ). ए ब्रि, जि. १७.१ ६२५, टिप्पण २ था । साकं महाधि( ४२० )रहित माममा सारमा २५ )मा गत शभिने( १ )समस घडव। 4) मे लाठिधभि । ४७ । सरगर्माण मितीचा गोण त्रिपचा पाराजित २५. )भजे ॥१८॥ स्तरमाबुधि(८)से चिति मदनस्य सूर्यात्मजन्य गणितंबरलोचन (011। योमाविषद(४० निहतं विदधीत सका पीतांशसूनच स स गणाति ॥ (शिष्यधीवृाखदतंत्र, उत्सराधिकार) पचापरावि गगपनिमारम५२०५३०००००मिमा अभिन । भीमम्य दियभाराष्ट्र पवसरमनदयमा (२२८५२८५२) ॥ १६ ॥ ( ग्रह्मस्फुटसिद्धांत. मध्यमाधिकार) 2
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