अंक. नवीन शैली के अंक शून्य . नवीन शैली के अंकक्रम में १ से 8 तक के लिये ६ अंक और खाली स्थान का सूचक है इन्हीं १० चिह्नों से अंकविद्या का समस्त व्यवहार चलता है. इस शैली में प्राचीन शैली की नाई प्रत्येक अंक नियत संख्या का ही सूचक नहीं है किंतु प्रत्येक अंक इकाई, दहाई, सैंकड़े मादि प्रत्येक स्थान पर पा सकता है और स्थान के अनुसार दाहिनी मोर से बाई भोर हटने पर प्रत्येक अंक का स्थानीय मूल्य दसगुना बढ़ता जाता है, जैसे ५१११११ में छों अंक १ के ही हैं परंतु पहिले से ( दाहिनी भोर से लेने से) १, दूसरे से १०, तीसरे से १००, चौथे से १०००, पांचवें से १०००० और छठे से १००००० का बोध होता इसीसे इस संख्यासूचकक्रम को दशगुणोत्तर संख्या कहते हैं, और वर्तमान समय में बहुधा संसार भर का अंकक्रम यही है. यह अंकक्रम भारतवर्ष में कब से प्रचलित हुमा इसका ठीक ठीक पता नहीं चलता. प्राचीन शिलालेखों तथा दानपत्रों में ई. स. की छठी शताब्दी के अंत के पास पास तक तो प्राचीन शैली से ही अंक लिखे मिलते हैं. नवीन शैली से लिखे हुए अंक पहिलेपहिल कलचुरि सं. ३४६१ (ई स. ६६५ ) के दानपत्र में मिलते हैं, जिसके पीछे ई. स. की १० वीं शताब्दी के मध्य के पास पास तक कहीं प्राचीन और कहीं नवीन शैली के अंकों का व्यवहार है. उसके बाद नवीन शैली ही मिलती है. परंतु ज्योतिष के पुस्तकों में ई. स. की छठी शताब्दी से बहुत पूर्व इस शैली का प्रचार होना पाया जाता है क्योंकि शक सं. ४२७२ (ई. स. ५०५) में वराहमिहर ने 'पंचसिद्धांतिका' नामक ग्रंथ लिखा जिसमें सर्वत्र नवीन शैली से ही भंक दिये हैं. यदि उस ममय नवीन शैली का व्यवहार सामान्य रूप से न होता तो वराहमिहर अपने ग्रंथ में नवीन शैली से अंक न देता. इससे निश्चित है कि ई. स. की पांचवीं शताब्दी के अंत के आसपास तो नवीन शैली से अंक लिम्बने का प्रचार सर्वसाधारण में था परंतु शिलालेख और दानपत्रों के लिखनेवाले प्राचीन शैली के ढर्रे पर ही चलते रहे हों जैसा कि इस देश में हर पात में होता भाया है. वराहमिहर ने पंचसिद्धांतिका में पुलिश, रोमक, वसिष्ठ, सौर (सूर्य) १ संखेड़ा से मिले हुए गूर्जरवंशी किसी राजा के उक्त दानपत्र में संवा संवत्सरशतप्रयं(ये) षटचत्वारिंशो- (शदु)त्तरके । ३४६' दिया है जी भार के ने अपनी इंडियन मॅथेमॅटिक्स' (भारतीय गणितशास्त्र) नामक पुस्तक में उक्त ताम्रपत्र के विषय में लिखा है कि वह संदेहरहित नहीं है' और टिप्पण में लिखा है कि 'ये अंक पीछे से जोड़े गये है' (पृ. ३१). मि.के का यह कथन सर्वथा स्वीकार करने योग्य नहीं है, क्योंकि उक्त दानपत्र को संदिग्ध मानने के लिय कोई कारण नहीं है और न कोई कारण मि के ने ही बतलाया है. इसी तरह अंकों के पीछे से जोड़ने का कथन भी स्वीकार योग्य नहीं है क्योंकि जब संवत् शब्दों में दिया ही था तो पीछे से फिर उसको अंको में बनाने की आवश्यकता ही नथी हरिलाल हर्षदगय धुध ने, जिसने उसका संपादन किया है, मुख ताम्रपत्र को देखा था परंतु उक्त विद्वान् को उन अंको का पीछ से बनाया जाना मालूम न हुआ और न उसके फोटो पर से ऐसा पाया जाता है. मि. के की भारतीय गणितशास्त्र का मषीन ठहराने की संचतान ने ही इस और ऐसी ही और प्रमाणशन्य कल्पनाओं की सृष्टि कर दी है जिस- का कुछ परिचय मागे दिया जायगा शब्दों और अंको दोनों में संवत् देने की परिपाटी प्राचीन है और कई लेखादि में मिलती है, जैसे कि छार(चार )गांव से मिले हुए गजा हुविष्फ के लेख में हुविक(क)स्य सामवत्सर चन(तु)रिश ४०' (मा. स हि.स. १९०८-६, सेट ५६ ), गिरनार के पास के चटान पर खुद एप महाक्षत्रप कद्रदामन के लेख मे वर्षे द्विसप्ततितमे ७० २' (ए..जि ८, पृ.४२) आदि ५ ड.कॉ., पृ ३८ सु, ग तापृ १३. संस्खाय' की टीका में भामराज ने वराहमिहर की मृत्यु शकसं ५०५ ( स ५८७ ) में होना लिखा है वह विश्वास योग्य नहीं है (सु:ग. त, १३). मनाचिय( ४०० सय काममपाच एकादो (पंचसिद्धांतिका, अध्याय १. प्रार्या ८). रोमकों पनपान अतिथि(१५. )पमान, पचक ( 4 )परितोनाम । मन्नारकपन दियो( exam )मामाध्यमाई' (पंच.८।१) मादि .
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