पृष्ठ:भारतीय प्राचीन लिपिमाला.djvu/१३९

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

3 . अंक. १११ होता है कि ब्राह्मी अंकों के चिक मिसर के हिएरेटिक अंकों से निकले हैं और हिंदुओं ने उनका अचरों में रूपांतर कर दिया, क्योंकि उनको शन्दों से अंक प्रकट करने का पहिले ही से अभ्यास था तो भी ऐसी उत्पत्ति का विवेचन अभी तक बाधा उपस्थित करता है और निश्चयात्मक नहीं कहा जा सकता परंतु दूसरी दो महत्व की बातें निश्चय समझना चाहिये कि- (१) अशोक के लेखों में मिलने वाले [अंकों के] भिन्न रूप यही बतलाते हैं कि इन अंकों का इतिहास ई स पूर्व की तीसरी शताब्दी से बहुत पूर्व का है; (२) इन चिों का विकास ब्राह्मण विद्वानों के द्वारा हुआ है क्योंकि उनमें उपध्मानीय के दो रूप मिलने हैं जो निःसंशय शिक्षा के प्राचार्यों के निर्माण किये ई. स. १८९८ में फिर बूलर ने डा. बर्नेल के मत को ठीक बनलाया परंतु उसमें इतना बदलने की मंमति दी कि भारतीय अंक मिसर के डेमोटिक क्रम में नहीं किंतु हिएरोटिक से निकले हुए अनुमान होते हैं, और साथ में यह भी लिग्वा कि 'डॉ. बर्नेल के मत को निश्चयात्मक बनाने के लिये ई.स. पूर्व की तीसरी और उमसे भी पहिले की शताब्दियों के और भी [ भारतीय ] अंकों की खोज करने, तथा भारतवर्ष और मिसर के बीच के प्राचीन मंपर्क के विषय में ऐतिहामिक अथवा परंपरागत वृत्तान्त की खोज, की अपेक्षा है अभी तो इसका सर्वथा अभाव है और यदि कोई मिमर के अंकों का भारत में प्रचार होना बतलाने का यत्न करे तो उसको यही अटकल लगाना होगा कि प्राचीन भारतीय नाविक और व्यापारी मिसर के अधीनस्थ देशों में पहुंचे होंगे अथवा अपनी समुद्रयात्रा में मिसर के व्यापारियों में मिले होंगे. परंतु ऐसी अटकल अवश्य मंदिग्ध है जब नक कि उसका सहायक प्रमाण न मिल.' इस तरह डॉ. पर्नेल भारतवर्ष के प्राचीन शैली के अंकों की उत्पत्ति मिसर के डिमोटिक अंकों से; येले उनका क्रम तो मिसर के हिगरोग्लिफिक अंकों से और अधिकतर अंकों की उत्पनि फिनिशिअन्, बाकट्रिअन् और अकेडिअन अंकों से, और बूलर मिसर के हिपरेटिक अंकों से यन. लाता है इन विद्वानों के कथनों का भारतीय अंकों के क्रम आकृतियों से मिलान करने से पाया जाता है कि- हिएरोग्लिफिक प्रकों का क्रम भारतीय क्रम से, जिसका विवेचन ऊपर पृ. १०३-४ में किया गया है, मर्वथा भिन्न है, क्योंकि उसमें मूल अंकों के चिक केवल तीन, अर्थात् १, १० और १०० थे. इन्हीं तीन विहां को पारंबार लिम्बने से ६६६ नक के अंक यनते थे तक के अंक, एक के अंक के विक (ग्वड़ी लकीर ) को क्रमशः १ से ६ पार लिग्वने से यनते थे. ११ से १६ तक के लिये १० के निक की बाई ओर क्रमशः१ से तक खड़ी लकीरें वींचने थे. २० के लिये १० का चिक दो बार और ३० से 8 तक के लिये क्रमशः 3 से 6 बार लिग्वा जाता था. २०० बनाने के लिये १०० के विक को दो बार लिम्बते थे, ३०० के लिये तीन बार आदि (देखो, ४ ११३ में दिया हुआ नकशा). इस क्रम में १००० और १०००० के लिये भी एक एक चित्र था और १००००० के लिये .. ...स: संख्या ३, पृ. ११६ (वितीय संस्करण). इससे पूर्व उक्त पुस्तक से जहां जहां हवाले दिये हैं ने प्रथम संस्करण से है. ..प.बि; जि.१७, पृ. ६२५