पृष्ठ:भारतीय प्राचीन लिपिमाला.djvu/१३६

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१०८ प्राचीनलिपिमाला. यू, थे, घ, ई और पु. और त. ८०-२७.00 D. और पु. ६०-६33,8,88 और छ १००-सु, सू, लु और भ. २००-सु, सू, सू, भा, लू और बूं. ३००-स्ता, सा, सुा, सा, सु, सुं और सू. ४००-सो, स्तो और स्ता. ऊपर लिखे हुए अंकसूचक संकेतों में १, २ और ३ के लिये क्रमशः ए, वि और त्रि; स्ति और श्री; और ओं, न और मः मिलते हैं; वे प्राचीन क्रम के कोई रूप नहीं है किंतु पिछले लेखकों के कल्पित हैं. उनमें से ए, वि और त्रि तो उन्ही अंकों के वाचक शब्दों के पहिले अचर हैं और स्व, स्ति और श्री तथा ओं, न और मः मंगल वाचक होने से इनको प्रारंभ के तीन अंकों का सूचक मान लिया है. एक ही अंक के लिये हस्तलिखिन पुस्तकों में कई भिन्न अक्षरों के होने का कारण कुछ तो प्राचीन अक्षरों के पढ़ने में और कुछ पुस्तकों से नकल करने में लेग्यकों की गलती है, जैसे २० के अंक का रूप 'थ' के समान था जिसकी माकृति पीछे से 'घ' से मिलती हुई होने से लेम्बकों ने 'थ' को 'घ', फिर 'घको ' और 'प' पहा होगा. इमी तरह दूसरे अंकों के लिये भी अशुद्धियां हुई होंगी प्राचीन शिलालेखों और दानपत्रों में सय अंक एक पंक्ति में लिग्वे जाते थे परंतु हस्तलिम्वित पुस्तकों के पत्रांकों में चीनी अक्षरों की नाई एक दूसरे के नीचे लिग्वे मिलते हैं ई. स. की छठी शताब्दी के मास पाम के मि. वावर के पास किये हुए पुस्तकों में भी पत्रांक इसी तरह एक दूसरे के नीचे लिखे मिलते हैं. पिछले पुस्तकों में एक ही पत्रे पर प्राचीन और नवीन दोनों शैलियों से भी अंक लिम्बे मिलते हैं. पत्रे की दूसरी तरफ के दाहिनी ओर के ऊपर की तरफ के हाशिये पर नो अचरसंकेत से, जिसको अक्षरपल्ली कहते थे; और दाहिनी तरफ के नीचे के हाशिये पर नवीन शैली के अंकों से, जिनको अंकपल्लि कहने थे. इस प्रकार के अंक नेपाल, पाटण (अणहिलवाड़ा), खंभान और उदयपुर (राजपूनाना में) आदि के पुस्तकभंडारों में रग्वे हुए पुस्तकों में पाये जाते हैं. पिछले हस्तलिम्वित पुस्तकों में अचरों के साथ कभी कभी अंक, तथा ग्वाली स्थान के लिये शून्य भी लिखा हुआ मिलता है, जैसे कि ३३ , १०२, १३१ ला, १५०-६ २०६% आदि. नेपाल के बौद्ध, तथा गुजरात, राजपूनाना आदि के जैन पुस्तकों में यही अक्षरक्रम ई. स. की १६ वीं शताब्दी तक कहीं कहीं मिल पाता है और दक्षिण की मलयालम् लिपि के पुस्तकों में अब तक अक्षरों से अंक मू ला १००% १ us १ यह चिक उपध्मानीय का है (देखो, लिपिपत्र २१, २५, ४७). २. यह चिश उपध्मानीय का है (देखो, लिपिपत्र ३८, ४२, ४४) • मलयालम् लिपि के पुस्तकों में बहुधा अब तक इस प्रकार अक्षरों में अंक लिखने की रीति चली आती है. ऍच. गंडर्ट ने अपने मलयालम भाषा के व्याकरण (दूसरे संस्करण) में अक्षर्ग से बतलाये जाने वाले अंकों का ब्यौरा इस तरह दिया है- १म. न. ३न्य -क. भू हा (१) प्र. २ (१). १०८म २००५. ३००. ४०=त. ५०ब. ६००च. ७०%Dक (त्रु) 50= १०=ह. १००%D. (जरों ए. सो; ई. स. १८६६, पृ.७१०). इनमें भी प्राचीन अक्षरो के पढ़ने में लगी होना पाया जाता है जैसे कि ६ का सूचक 'हा', 'फ' को 'ह' पढ़ने से ही इमा है उस लिपि में 'फ' और 'हको प्राकृति बहुत मिलती है (देखो, लिपिपत्र ८१). ऐसे ही और भी प्रतियां हुई है.