पृष्ठ:भारतीय प्राचीन लिपिमाला.djvu/१३५

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अंक. २०७ प(५) से बिलकुल मिलते हुए हैं. कभी कभी अक्षरों की नई अंकों के भी सिर बनाने से उनकी प्राकृतियां कहीं कहीं अक्षरों सी बनती गई.. पीछे से अंकचिह्नों को अक्षरों के से रूप देने की चाल पड़ने लगी और कितने एक लेखकों ने और विशेषकर पुस्तकलेखकों ने उनको सिरसहित अचर ही बना डाला जैसा कि बुद्धगया से मिले हुए महानामन् के शिलालेख, नेपाल के कितने एक लेखों तथा प्रतिहारवंशियों के दानपत्रों से पाया जाता है. तो भी १, २, ३, ५०, ८० और १० तो अपने परिवर्तित रूपों में भी प्राचीन रूपों से ही मिलते जुलते रहे और किन्ही अक्षरों में परिणत न हुए. शिलालेखों और ताम्रपत्रों के लेम्वक जो लिखते थे वह अपनी जानकारी से लिग्वते थे, परंतु पुस्तकों की नकल करनेवालों को तो पुगनी पुस्तकों से ज्यों का त्यों नकल करना पड़ना था. ऐसी दशा में जहां वे मूल प्रति के पुराने अक्षरों या अंकों को ठीक ठीक नहीं समझ सके वहां थे अवश्य चूक कर गये. इसीसे हस्तलिखित प्राचीन पुस्तकों में जो अंकसूचक अक्षर मिलते हैं उनकी संख्या अधिक है जिनमें और कई अशुद्ध रूप दर्ज हो गये हैं लिपिपत्र ७२ (पूर्वार्द्ध की अंतिम तीन पंक्तियों) और ७४ ( उत्तरार्द्ध की अंतिम दो पंक्तियों) में हस्तलिम्वित प्राचीन पुस्तकों में अंकमचक अक्षरादि दिये गये हैं वे बहुत कम पुस्तकों से है भिन्न भिन्न हस्तलिग्वित पुस्तकों में वे नीचे लिग्वे अनुसार मिलते हैं- १-ए, स्व और 3 २-हि, स्ति और न 3-त्रि, श्री और मः ४-2', ई, का, एक, एक, एक, पर्क, प्कि (के). , , मैं और ५ ५-तृ, तु, ता. ह और न ६-फ, फ्रं, , प्र, भ्र, पु, व्या और फ्ल. ७-ग्र. ग्रा, ग्री, ग्भ्री गगा और भ्र. और द्र ६-ओं, ई. , 5, ॐ अऔर . १०-लु, ल, ळ, ण्ट, डा, अऔर ता. २०-थ, था, ध, र्था, घ, र्घ, प्व और व ३०-ल, ला, ले और लो ४०-स, से, ता, सा और म ५०-86.6.६.9 और पू की, गु.: लेट २ फ्ली : गुट ४१ A ..: जि ६, पृ. १६३.८० . जि १५ पृ ११२ और १४० के पास के प्लेट. और राजपूताना म्युज़िश्रम में स्खा हुमा प्रतिहार गजा महेंद्रपाल (दूमर) के समय का वि सं १००३ का लेख. यह लेख मैंने 'पॅपिनाफिया इंडिका' मैलपने के लिये भेज दिया है .. 'सूर्यप्राप्ति' नामक जैन ग्रंथ का टीकाकार मलयगिरि, जो ई.स की १२वीं शताम्दी के भासपास हुमा, मूब पुस्तक के शम को ४ का सूचक घतलाता है (दोपादानास प्रासादीया रस्समेन पदेन पर पहचाना -एँ, जि.६, पृ ४७). . यह चतुरन चिश उपध्मानीय का है । देखो, लिपिपत्र ४१) 'क'के पूर्व इसका प्रयोग करना यही बतलाता है कि उस समय इस चिकका ठीक ठीक काम नहीं रहा था . 'क' के ऊपर का यह विहन जिल्हामूलीय का है (देखो, लिपिपत्र १६)