प्राचीनलिपिमाला. १००-नानाघाट के लेख में इस अंक का चिन 'सु'अथवा 'भ' से मिलता हुचा है क्यों कि उक्त दोनों अक्षरों की प्राकृति उस समय परस्पर बहुत मिलती हुई थी. पिछले लेखों में सु, भ, सु, से, सो और स्त्रों से मिलते हुए रूप मिलते हैं, परंतु नासिक के लेखों और क्षत्रपों के सिकों में इसके जो रूप मिलते हैं उनकी उस समय के किसी अक्षर से समानता नहीं है. २००-अशोक के लेखों में मिलनेवाले इस अंक के तीन चिहनों में से पहिला 'सु' परंतु दूसरे दो रूप उस समय के किसी अक्षर से नहीं मिलते. नानाघाट के लेख का रूप के समान है. गुप्तों आदि के लेखों का दूसरा रूप 'ला' से मिलता हुआ है और भिन्न भिन्न लेखादि से उद्धृत किये हुए इस अंक के दो रूपों में से दूसरा 'स' से मिलता है. नासिक के लेखों, क्षत्रपों के सिकों, वलभी के राजाओं तथा कलिंग के गंगावंशियों के दानपत्रों में मिलनेवाले इस अंक के रूप किसी अक्षर से नहीं मिलते. ३००-का अंक १०० के अंक की दाहिनी ओर २ माड़ी या गोलाईदार लकीरें लगाने से बनता है १०० के सूचक अक्षर के साथ ऐसी दो लकीरें कहीं नहीं लगती, इसलिये इसकी किसी मात्रासहित अक्षर के साथ समानता नहीं हो सकती. ४०० ६०० तक के चिह्न, १०० के चिहन के आगे ४ से ६ तक के अंकों के जोड़ने से बनते थे. उनकी अक्षरों से समानता नहीं है. १०००-का चिहन नानाघाट के लेग्व में रो' के समान है. नासिक के लेखों में 'धु' अथवा 'धु से मिलता हुमा है और वाकाटकवंशियों के दानपत्रों में उनकी लिपि के 'वु' के समान है २००० और ३००० के चिहन, १००० के चिहन की दाहिनी ओर ऊपर को क्रमशः एक और दोभाड़ी लकीरें जोड़ने से बनते थे. इसलिये उनकी किसी अक्षर से समानता नहीं हो सकती. ४००० से १००० तक के अंक, १००० के चिहन के आगे क्रमशः ४ से 8 तक के, और १०००० से १०००० तक के अंक, १००० के आगे १० से १० तक की दहाईयों के चिहन जोड़ने से बनते थे इसलिये उनकी अक्षरों से समानता नहीं है. उपर प्राचीन शैली के अंकों की जिन जिन अक्षरों से ममानता बतलाई गई है उसमें मब के सब अक्षर उक्त अंकों में ठीक मिलते हुए ही हों ऐसा नहीं है कोई कोई अक्षर ठीक मिलते है बाकी की समानता ठीक वैसी है जैसी कि नागरी के वर्तमान अक्षरों के सिर हटाने के बाद उनका नागरी के वर्तमान अंकों से मिलान करके यह कहा जाय कि २ का अंक 'र' सं, : 'स से, ५ 'पू से, ६ 'ईसे, ७ 'उ' की मात्रा से और = 'ट' से मिलता जुलता है. १, २, ३, ५०. ८० और १० के प्राचीन उपलब्ध रूपों और अशोक के लेग्यों में मिलनेवाले २०० के दूसरे व तीसरे रूपों (देखो. हिपिपत्र ७४ ) से यही पाया जाता है कि ये चिहन तो सर्वथा अक्षर नहीं थे किंतु अंक ही थे. रोमी दशा में यही मानना पड़ेगा कि प्रारंभ में १ से १००० तक के सब अंक वास्तव में कही थे. यदि अक्षरों को ही भिन्न भिन्न अंकों का सूचक माना होता तो उनका कोई प्रम अवश्य होता और सब के सब अंक अक्षरों से ही पतलाये जाते, परंतु ऐसा न होना यही बतलाता है कि प्रारंभ में ये सब अंक ही थे अनायास से किसी अंक का रूप किसी अक्षर से मिल जाय यह बात इसरी है; जैसे कि वर्तमान नागरी का २ का अंक उसी लिपि के 'र' से, और गुजराती के २ (२) और ५ (५) के अंक उक्त लिपि के र (२) और 3 एक, दो और तीन के प्राचीन चि तो स्पष्ट ही संख्यासूचक है और अशोक की लिपि में चार का चिमजो'क' अक्षर से मिलता पुत्रा है यह संभव है कि चौराहे या स्वस्तिक का सूचक हो. ऐसे ही और अंकों के लिए भी कोई कारख रहा होगा
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