१०४ प्राचीनलिपिमाला. २०० के लिये १०० का पिक लिख उसकी दाहिनी भोर, कमी ऊपर कभी मध्य और कभी नीचे की तरफ, माड़ी (सीधी, तिरछी या वक्र) रेखा जोड़ी जाती थी. ३०० के लिये १००के चिकसाब वैसे ही दोलकीरें जोड़ी जाती थीं. ४०० से १०० तक के लिये १०० का चिन्ह लिख उसके साथ क्रमशः ४ से तक के अंक एक छोटी सी माड़ी लकीर' से जोड़ देते थे. १०१ से 8 तक लिखने में सैंकड़े के अंक के भागे दहाई और इकाई के अंक लिखे जाते थे, जैसे कि १२६ के लिये १००, २०, ६ ६५५ के लिये १००,५०,५. यदि ऐसे अंकों में दहाई का अंक नहीं हो तो सैंकड़े के बाद इकाई का अंक रक्ला जाता था, जैसे कि ३०१ के लिये ३००, १. (देखो, लिपिपत्र ७५ में मिश्र अंक). २००० के लिये १००० के चित्र की दाहिनी भोर ऊपर को एक छोटीसी सीधी बाड़ी (या नीचे को मुड़ी हुई ) लकीर जोड़ी जाती थी और ३००० के लिये वैसी ही दो लकीरें. ४००० से १००० तक और १०००० से १०००० तक के लिये १००० केचिस के मागे ४ से हतक के और १० से. तक के चित्र क्रमशः एक छोटी सी लकीर से जोड़े जाने थे (देखो, लिपिपत्र ७५ ). ११००० के वास्ते १०००० लिख, पास ही १००० लिखते थे इसी तरह २१००० के लिये २००००, १०००; ६६००० के लिये ६००००, ६००० लिखते थे. ऐसे ही ६६६६६ लिखने हो तो ९००००, ६०००, ६००, ६०, लिखते थे. यदि सैंकड़ा और दहाई के अंक न हों तो हजार के अंक के आगे एकाई का अंक लिखा जाता था, जैसे कि ६००१ लिखना हो तो ६०००.१. उपर्युक्त प्राचीन अंकों के विक्री में से १, २, और ३ के चिक तो क्रमशः -, = और = बाड़ी लकीरें हैं जो अब तक व्यापारियों की बहियों में रुपयों के साथ आने लिखने में एक, दो और तीन के लिये व्यवहार में पाती हैं. पीछे से इन लकीरों में वक्रता माने लगी जिससे १ की लकीर से वर्तमान नागरी आदि का १ बना, और २ तथा ३ की वक्र रेखाओं के परस्पर मिल जाने से वर्तमान नागरी भादि के र और ३ के अंक बने हैं. बाकी के चित्रों में से कितने एक अक्षरों से प्रतीत होते हैं और जैसे समय के साथ अक्षरों में परिवर्तन होता गया वैसे ही उनमें भी परिवर्तन होना रहा प्राचीन शिलालेग्व और दानपत्रों में ४ से १००० तक के विकों के, अक्षरों से मिलते हुए, रूप नीचे लिखे अनुसार पाये जाते हैं- ४-अशोक के लेखों में इस अंक का चिक 'क' के समान है नानाघाट के लेख में उसपर गोलाईदार या कोणदार सिर बनाया है जिससे उसकी माकृति 'एक' से कुछ कुछ मिलती होने लगी है. कुशनवंशियों के मथुरा आदि के लेग्वों में उसका रूप एक जैसा मिलता है. चत्रपों और बांधवंशियों के नासिक भादि के लेखों में एक ही विशेष कर मिलता है परंतु उन लेखों से हुए विक्रों में से चौथे में 'क' की बड़ी लकीर को बाई तरफ़ मोड़ कर कुछ ऊपर को बड़ा दिया है जिससे उसकी प्राकृति 'कसी प्रतीत होती है पश्चिमी क्षत्रपों के सिकों में 'क' की दाहिनी ओर मुड़ी हुई खड़ी लकीर, चलनी कलम से पूरा चिक लिग्वने के कारण, 'क' के मध्य की मादी लकीर से मिल गई जिससे उक्त सिक्कों से उद्धृत किये चिक्रों में से दो अंतिम षिकों की प्राकृति 'म' के समान बन गई है. जग्गयपेट के लेखादि से उद्धृत किये हुए चिकों में चार के चित्र के एक और 'मसे रूप मिलते हैं; गुसों मादि के लेखों में भी 'क' और 'म से ही मिलते हैं. पल्लव और शालकायन वंशियों के दानपत्रों से उद्धृत किये ६ चिक्रों में से पहिला 'क', दूसरा 'की', तीसरा और चौथा 'एक', । यह रीति ई स पूर्व की दूसरी शताब्दी और उसके पीछे के शिलालेखादि मैं मिलती है. अशोक के लेखों में इसस कुछ मित्रता पाई जाती है (देखो लिपिपत्र ७४ के पूर्व में अशोक के लेखों से दिये हुए २०० के अंक के तीन रूप) २. पिछले लेखों में कहीं कहीं यह लकीर नहीं भी लगाई जाती थी (देलो, लिपिपत्र ७४ के उत्तराई में मिण मित्र सेबो से उद्धृत किये हुए अंको में ४०० और ७०० तथा प्रतिहारों के दानपत्रों में १००)
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