प्राचीनलिपिमाला (नतिग-ज्ञातिक), भवन (भवग-भावक), संभतिग्रन ( संभतिगन ) आदि में. इस खेल में कितने एक अक्षर ऐसे हैं जिनका एक से अधिक तरह पढ़ा जाना संभव है. उनपर एक से अधिक अक्षर लगाये हैं. 'मु में 'म का रूप खड़ी लकीर सा बन गया है. कहीं कहीं 'त' और 'र, तथा 'य और 'श' में स्पष्ट अंतर नहीं है और 'न' तथा 'ण' में भेद नहीं है चाहे सो पढ़ लो. लिपिपत्र ६६षं की मूल पंक्तियों का नागरी अक्षरांतर- इमेन कुशलमुलेन महरजरजतिरजहोवेष्कस्य अग्रभगए ' भवतु मदपिदर मे पुयर भवतु भदर मे इष्टुनमग्णस्य पुयर भवतु शोच मे भुय मतिमित्रसभतियन पुयर भवतु महि- श च वग्रमरोगस्य अग्रभगपडियश भवतु सर्वसत्वम लिपिपत्र ७० यां यह लिपिपत्र तक्षशिला से मिले हुए रौप्यपत्र के लेख', फतहजंग', कनिहारा' और पथियार' के शिलालेखों तथा चारसड़ा से मिले हुए तीन लेग्वों से, जिनमें से दो मिट्टी के पात्रों पर स्याही से लिग्वे हुए हैं और तीसरा एक मूर्ति के नीचे खुदा है, तय्यार किया गया है. तक्षशिला के रौप्यपत्र पर का लेख बिंदियों से खुदा है. लिपिपल ७०वें की मूल पंक्तियों का नागरी अक्षरांतर- स १.० २०१० ४ २ अयम अषडस मसस दिवमे १.४ १" इश दिवसे प्रदिस्तवित भगवतो धतुत्रो उर केन लोसफिअपुचन बदलिएन नोच- घर नगर वस्तवेन नेन इमे प्रदिस्तवित भगवतो धतुमो धमर- इए तक्षशिलतनुवरा बोधिसत्वगहमि महरअम रजतिरजस मूल पंक्तियां वर्डक के पात्र के लेख सद. इन मूल पंक्तियों में जिन जिन अक्षरा के नीच 'र की सूचक माड़ी लकीर निरर्थक लगी है उसके स्थान में हमने 'र' नहीं पढ़ा परंतु जिन अक्षरों के नीचे वह लगी है उनके नीचे ऐसा चिक लगा दिया है .. ज. रॉ ए सो ई स १९१५ पृ १६२ के पास के मंट से ज.ए;ई स १८० भाग १, पृ १३० और प्लेट . . जि. ७ ११८ के पास के प्लेट से. • प्रा. स. रिईस १९०२-३. पृ. १८३. लेख A और C .. आ. स. रि, ई स. १९०३-४, प्लेट ६७, मूर्ति प्रथम के नीचे. ८. ये मूल पंक्तियां तक्षशिला से मिले हुए रौप्यपत्र के लेख से है .. अर्थात् १३६ .. अर्थात् १५. v
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