सरोष्ठ लिपि. to? लिपिपत्र ६८बां. यह लिपिपत्र पार्थिमन्वंशी राजा गंडोफरस के समय के तरून-इ-पाही के शिलालेख, कसन- वंशी राजा कनिक के समय के सुएविहार ( बहावलपुर राज्य में ) के.साबलेख, शाहजी की देरी (कनिष्क विहार) के स्तूप से मिले हुए कांसे के पात्र पर के राजा कनिष्क के समय के तीन लेखों और झेडा के शिला लेख से तय्यार किया गया है. सुएविहार के नालेख में 'प्य' और 'स्य' के नीचे का ग्रंथिदार अंश 'यका सूचक है. लिपिपत्र १८वें की मूल पंक्तियों का नागरी प्रधरांतर- महरजस्य रजतिरजस्य देवपुषस्य कनिष्कस्य संवत्सरे एकद सं १०१ दासिकस्य मसस्य दिवसे अठविशे दि २.४४ उच दि- वसे भिस्य नगदतस्य संखके (१)टिस्य पचर्यदमवतशिष्यस्य अपर्यभवप्रशिष्यस्य यठिं घरोपयतो इह दमने विहरमिनि लिपिपल ६६ वां यह लिपिपत्र वर्डक से मिले हुए पीतल के पात्र पर खुदे हुए कुशनवंशी राजा हुविष्क के समय के लेख, कुशनवंशी वाझेप के पुत्र कनिष्क के समय के आरा के लेव" और पाजा" तथा कलदरा के शिलालखों मे तय्यार किया गया है. वर्डक के पात्रपर का लेख बिंदियों से खुदा है और उसमें कई जगह अक्षरों के नीचे के भाग मे दाहिनी ओर र सूचक माड़ी लकीर निरर्थक लगी है, जैसे कि भगवद" (भगवद्-भगवत् ), अग्रभन (अग्रभग-अग्रभाग), नतिग्र ज.ए.ई स १८६०. भाग १. ११६ और लेट ( देखो, ऊपर पृ ३२, टिप्पण ६) ई : जि १०. पृ. ३२५ पास केप्लेट मे .. श्राम रिस ११०६ १०, प्लेट ५३ वे लेख भी बिंदियों सेखुद हैं ज ए.ई स १८६०. भाग १ पृ १३६ और प्लंट. पंडित भगवानलाल इंद्रजी ने इनको 'प' और 'स्म' पढ़ा है ( ए जि. ११. पृ. १२८ ) परंतु इनको 'ब और 'स्य' पढ़ना ही ठीक होगा यह वृत्तांत लिखने समय मेरे पास एक गुप्तलिपि के प्राकृत लेखकी छाप आई जिसमें 'सन्यसेठिस्थ' स्पष्ट है. संस्कृतमिश्रित प्राकृत लेखों में 'म्स के स्थान में 'स्य विभाक्ति प्रत्यय का होना कोई आधर्व की बात नहीं है ये मूल पंक्तियां सुएविहार के ताम्रलेख से है. ५१०१%80+१=११. ८. २०४४-२०+४+४-२८. • जि ११. पृ. २१० और २११ के बीच के प्लेटों मे. ..एँ जि. ३७, पृ ५८ के पास का प्लेट, लेख दूसरा १०. जि ३७ पृ ६४ के पास का प्लंट. लेख दृसग १८: जि ३७, पृ ६६ के पास का प्लेट, लेख पहिला. " भारतवर्ष की किसी प्राचीन प्राकृत भाषा में 'भगवत्' का मप्रवद' और 'अप्रभाग' का 'अप्रभप्र' रूप नही होता ऐसी दशा में जैसे अशोक के खरोष्ठी खेलों में प्य' (देखो, ऊपर पृ.६६) के 'र' के नीचे ऐसी हो लकीर लगी है वहां किसी तरह पढ़ा नहीं जा सकता वैसे ही भप्रबद और 'अग्रभा' मादि पढ़ना भगुव ही है अशोक के लेखों में ( देखा, लिपिपत्र ६५) जैसे 'ज' (दूसरे), और 'म' (चौथे), तथा श्रीकों के सिको में (खिपिपत्र ६६ ) 'ज' (पांचवे. छठे और सातवें). त (दूसरे, तीसरे और चौथे). (पहिले व दूसरे ), 'म' (पहिले) और 'स'। पहिले) के नीचे दोनों तरफ निकली हुईभाड़ी लकीरें बिना किसी आशय खगी मिलती हैं वैसे ही इस लेख में इस लकीर का होना सभव है, सो कलम को उठा कर दोनों तरफ निकली हुई न बना कर चलती कलम से दाहिनी ओर ही बना दी जान पड़ती है. इसलिये इस रेखा को पूरे 'ग' का अंश ही मानना चाहिये. ऐसे ही 'मि' के साथ ऐसी लकीर कहीं कहीं निरर्थक लगी हैवहां उसको या तो 'मि'का अंश ही मानना चाहिये अथवा उसको 'म्मि' पढ़ना चाहिये. जहां 'र' की संभावना हो वही नि' पड़ना चाहिये.
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